Tuesday, 16 February 2016

माता ब्रह्मचारिणी

           परमेश्वरी दुर्गा के द्वितीय स्वरूप का नाम ब्रह्मचारिणी है।नवरात्र मे द्वितीया को इन्हीं के पूजन का विधान है।
           ब्रह्मचारिणी शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की जाती है।प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार " ब्रह्मचारयितुं शीलं यस्याः सा ब्रह्मचारिणी " --- अर्थात् अपने भक्तों को सच्चिदानन्दमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना जिनका स्वभाव है ; उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा जाता है।द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार ब्रह्म का अर्थ है " तप " -- वेदस्तत्वं तपो ब्रह्म।इस दृष्टि से ब्रह्मचारिणी का अर्थ है -- तपश्चारिणी या तप का आचरण करने वाली।इस अर्थ का समर्थन निम्नलिखित कथा से भी होता है --
          दक्ष प्रजापति के यज्ञ मे योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म करने वाली सती जी बाद मे हिमालय की पुत्री के रूप मे अवतरित हुईं।उस समय उनका नाम पार्वती हुआ।एक दिन नारद जी हिमालय के घर गये।हिमालय ने उनसे पार्वती की जन्मकुण्डली देखने को कहा।नारद ने पार्वती की हस्त रेखाओं को देखकर कहा कि इनका विवाह किसी योगी ; नंग-धड़ंग रहने वाले व्यक्ति से होगा।ये सभी लक्षण भगवान शिव जी मे विद्यमान हैं।अतः ये तप द्वारा शिव जी को प्रसन्न करें।शिव जी इन्हें अपनी अर्धाङ्गिनी रूप मे स्वीकार कर लेंगे।नारद के चले जाने पर पार्वती जी अपने पिता जी से आज्ञा लेकर कठोर तप करने लगीं।इसीलिए इनका नाम तपश्चारिणी या ब्रह्मचारिणी पड़ गया।
            माता ब्रह्मचारिणी जी नितान्त निर्गुणा एवं निराकारा हैं किन्तु अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए इन्होंने सगुण रूप धारण किया था।ये अत्यन्त ज्योतिर्मयी भव्य मूर्ति हैं।इनके दक्षिण हस्त मे जपमालिका और वाम हस्त मे कमण्डलु सुशोभित है।ये सदैव आनन्द से परिपूर्ण रहती हैं।ये अपने भक्तों को अनन्त फल प्रदान करने वाली हैं।इनकी उपासना से मनुष्य मे तप ; त्याग ; सदाचार ; वैराग्य आदि सद्गुणों की वृद्धि होती है।इनके तपोमय जीवन से सभी को तपश्चरण की प्रेरणा प्राप्त होती है।इनका ध्यान इस मन्त्र से करना चाहिए ---
    दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
    देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
     ----- अर्थात् जो दोनों करकमलों मे अक्षमाला और कमण्डलु धारण करती हैं ; वे सर्वश्रेष्ठा ब्रह्मचारिणी माता मुझ पर प्रसन्न हों।

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