हम सब उस भगवती जगदम्बा की ही सन्तान हैं और जगदम्बा जी हम सबको अत्यधिक प्यार करती हैं।वे हमारी सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर रहती हैं।वे एक क्षण के लिए भी हमसे अलग नहीं होना चाहती हैं।इसीलिए वे समस्त प्राणियों मे छाया रूप मे स्थित रहती हैं।अतः उन अगाध ममतामयी माँ को बारंबार नमस्कार है ---
या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
Thursday, 29 September 2016
या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
प्राणी की मूल प्रवृत्तियों मे क्षुधा या भूख का महत्त्व पूर्ण स्थान है।शरीर की पुष्टि के लिए आहार आवश्यक है।प्राणी आहार तभी लेता है ; जब उसे भूख लगती है।इस प्रकार शरीर संरक्षण एवं संवर्धन के लिए क्षुधा बहुत आवश्यक है।यदि क्षुधा क्षीण हो जाय तो आहार ग्रहण कर पाना कठिन है।आहार लिए बिना शरीर का अस्तित्व ही संकट मे पड़ जायेगा।परन्तु माता भगवती अत्यन्त दयालु हैं।उन्हें अपनी सन्तानों की शारीरिक सुरक्षा की चिन्ता सदैव बनी रहती है।इसीलिए वे समस्त प्राणियों मे क्षुधा के रूप मे स्थित होकर उनके शरीर संरक्षण मे सहयोग करती रहती हैं।अतः ऐसी ममतामयी माँ को बारंबार नमस्कार है ---
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
संसार के प्रत्येक प्राणी को जीवन यापन एवं जीविकोपार्जन के लिए न्यूनाधिक मात्रा मे श्रम करना ही पड़ता है।इस श्रम से उसे थकान की अनुभूति होना स्वाभाविक है।थकान को दूर करने के लिए निद्रा ही सर्वोत्तम साधन है।सुखमय नीद आ जाने पर सम्पूर्ण थकान दूर हो जाती है और जगने पर प्राणी पूर्ण स्वस्थ ; थकान-रहित एवं स्फूर्ति युक्त हो जाता है।
मातेश्वरी दुर्गा जी अत्यन्त दयालु ; भक्तवत्सला एवं पुत्रवत्सला हैं।वे अपने भक्तों एवं सन्तानों की थकान दूर करने के लिए समस्त प्राणियों मे निद्रा रूप मे स्थित हैं।अतः उन्हें बारंबार नमस्कार है --
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
इससे स्पष्ट है कि जिसे अनिद्रा की शिकायत हो या विश्राम की आवश्यकता हो तो उसे जगदम्बा दुर्गा की उपासना अवश्य करनी चाहिए।अन्य उपायों की यह उपाय अधिक सरल और सुलभ है।
Wednesday, 28 September 2016
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
प्राणि-मात्र के लिए बुद्धि नितान्त आवश्यक है।बुद्धि के अभाव मे प्राणी का अस्तित्व ही खतरे मे पड़ सकता है।बुद्धिहीन प्राणी किसी भी प्रकार की क्रिया कर सकता है।वह क्रिया उसके लिए घातक स्थिति भी उत्पन्न कर सकती है।विशेषकर मानव-विकास मे बुद्धि की असीम महत्ता है।बुद्धि या सद् बुद्धि के द्वारा ही मनुष्य संरचनात्मक कार्यों मे प्रवृत्त होता है।बुद्धि के द्वारा ही उसके मस्तिष्क मे उत्तम एवं कल्याणकारी विचारों का प्रादुर्भाव होता है।
वह जगदम्बा समस्त प्राणियों मे बुद्धि रूप से स्थित है।वे बुद्धिरूपिणी मातेश्वरी ही मानव मात्र को सत्कर्मों मे प्रवृत्त करती हैं।उसके मस्तिष्क मे कल्याणकारी विचारों को उत्पन्न कर सन्मार्ग की ओर प्रेरित करती हैं।अतः प्राणि-मात्र मे बुद्धि रूप मे स्थित उन मातेश्वरी को बारंबार नमन है ---
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
संसार के प्रत्येक प्राणी की सार्थकता तभी तक है ; जब तक उसमे प्राण है।प्राण-विहीन शरीर तो शव बन जाता है।प्राण विद्यमान होने के कारण ही वह प्राणी कहलाता है।शरीर मे जब तक प्राण रहता है ; तभी तक उसमे चेतना रहती है।यह बात अलग है कि वह चेतना न्यूनाधिक हो सकती है किन्तु प्राण रहते चेतना का पूर्ण अभाव संभव नहीं है।दूसरे अर्थों मे चेतना ही प्राण है।शरीर की यह चेतना उस परमाराध्या भगवती के अस्तित्व का ही द्योतक है।अतः स्पष्ट है कि वह देवी समस्त प्राणियों मे चेतना रूप मे विद्यमान है।इसलिए उन्हें बारंबार नमस्कार है ---
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
Tuesday, 27 September 2016
विश्व पर्यटन दिवस -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
विश्व पर्यटन दिवस प्रतिवर्ष 27 सितम्बर को मनाया जाता है।इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को पर्यटन के प्रति जागरूक बनाना है।इस दिन अनेक ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है ; जिससे प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मे पर्यटन के प्रति अभिरुचि उत्पन्न हो।जब उनके हृदय मे रुचि उत्पन्न होगी तब वे पर्यटन स्थलों की यात्रा कर सकेंगे।इसके लिए संगोष्ठियाँ आयोजित करके पर्यटन के लाभों की जानकारी दी जाती है।इस दिन प्रतियोगितायें भी आयोजित की जाती हैं ; जिनमें पर्यटन से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं।
इस दिन को मनाने से लोग पर्यटन के लिए तैयार होंगे।इससे पर्यटन स्थलों एवं वहाँ की सरकारों को भी टैक्स आदि के रूप मे धन लाभ होगा।साथ ही पर्यटन स्थलों की मरम्मत ; सफाई ; रँगाई-पुताई भी होगी।अनेक अनजान पर्यटन स्थलों की पहचान होगी।उनके विकास की व्यवस्था होगी।इससे देश के गौरव की वृद्धि होगी।इसलिए इस दिन को पूर्ण उत्साह के साथ मनाना चाहिए।इससे अनेक लाभ होंगे।
Saturday, 24 September 2016
शारदीय नवरात्र -- 2016 --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
सामान्य रूप से जगदम्बा दुर्गा जी सदैव पूज्य हैं।जीवन के प्रत्येक क्षण मे उनकी उपासना ; आराधना आदि करनी चाहिए।फिर भी नवरात्र का समय उनकी उपासना के लिए विशेष उपयुक्त होता है।ये नवरात्र वर्ष मे चार बार होते हैं ; जो चैत्र ; आषाढ़ ; आश्विन और माघ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नवमी तक माने जाते हैं।इन चारों मे चैत्र एवं आश्विन के नवरात्र अधिक प्रसिद्ध हैं।इनमे भी आश्विन के शारदीय नवरात्र का विशेष महत्त्व है।
इस वर्ष शारदीय नवरात्र का आरम्भ दिनांक 01 अक्टूबर 2016 शनिवार से हो रहा है।इस वर्ष यह नवरात्र दस दिनों का है।इसलिए नवमी 10 अक्टूबर 2016 सोमवार को होगी।इसका कार्यक्रम इस प्रकार है ----
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01-10-2016 शनिवार को
नवरात्रारम्भ ; घटस्थापन प्रातः 08:14 बजे तक ; अभिजिन् मुहूर्त दिन 11:22 बजे से 12:10 बजे तक ; प्रतिपदा तिथि सायं 05:39 बजे तक ; माता शैलपुत्री दर्शन।
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02-10-2016 रविवार को
द्वितीया दिन रात चौबीसो घण्टे तक ; माता ब्रह्मचारिणी दर्शन
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03-10-2016 सोमवार को
द्वितीया प्रातः 07:29 बजे तक ; उसके बाद तृतीया लगेगी ; माता ब्रह्मचारिणी दर्शन
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04-10-2016 मंगलवार को
तृतीया प्रातः 09:32 बजे तक उसके बाद चतुर्थी लगेगी ; माता चन्द्रघण्टा दर्शन
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05-10-2016 बुधवार को
चतुर्थी दिन 11:37 बजे तक उसके बाद पञ्चमी ; माता कूष्माण्डा दर्शन
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06-10-2016 गुरुवार को
पञ्चमी दिन 01:34 बजे तक उसके बाद षष्ठी ; माता स्कन्दमाता दर्शन
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07-10-2016 शुक्रवार को
षष्ठी दिन 03:14 बजे तक उसके बाद सप्तमी ; माता कात्यायनी दर्शन
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08-10-2016 शनिवार को
सप्तमी सायं 04:30 बजे तक उसके बाद अष्टमी ; माता कालरात्रि दर्शन
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09-10-2016 रविवार को
अष्टमी सायं 05:20 बजे तक उसके बाद नवमी ; महाष्टमी व्रत ; माता महागौरी दर्शन
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10-10-2016 सोमवार को
नवमी सायं 05:38 बजे तक ; माता सिद्धिदात्री दर्शन ; नवमी तक हवनादि कार्य होंगे।नवरात्र व्रत की पारणा ।
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Thursday, 22 September 2016
वेदव्यास का जन्म क्यों हुआ ? --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
संसार के प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है।बिना कारण के कोई कार्य सम्भव ही नहीं है।इसी प्रकार भगवान विष्णु के जो चौबीस अवतार हुए हैं ; उनके भी कोई न कोई महनीय कारण थे।भगवान वराह का अवतार पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिए और राजा पृथु का अवतार संसार मे राजा के आदर्श प्रस्तुत करने के लिए हुआ था।भगवान कूर्म का अवतार समुद्र-मन्थन द्वारा अमृत प्राप्त कराने के लिए और नृसिंह का अवतार हिरण्यकशिपु का अन्त कर प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए हुआ था।इसी प्रकार राम का अवतार रावण आदि राक्षसों का संहार करने के लिए और कृष्ण का अवतार कंस आदि असंख्य दुष्टों का विनाश करने के लिए हुआ था।
अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक अवतार किसी न किसी विशिष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए हुआ था।इसी प्रकार वेद व्यास का अवतार भी एक विशेष प्रयोजन के लिए हुआ है।श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार जब समय के फेर से लोगों की बौद्धिक क्षमता कम हो जाती है।उनकी आयु भी कम हो जाती है।उस समय भगवत्तत्त्व से परिपूर्ण वेदों की बात जनसामान्य समझ नहीं पाता है।तब उस वेद रूपी वृक्ष को विभिन्न शाखाओं के रूप मे विभाजित करने के लिए प्रत्येक कल्प मे सत्यवती के गर्भ से व्यास जी प्रकट होते हैं ---
कालेन मीलितधियामवमृश्य नृणां
स्तोकायुषां स्वनिगमो बत दूरपारः।
आविर्हितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यां
वेदद्रुमं विटपशो विभजिष्यति स्म।।
महर्षि वेदव्यास जी पुराणों की रचना करते हैं और उनमे वेदों के गूढ़ातिगूढ़ तत्त्वों को सरल भाषा मे व्याख्यायित करते हैं।अतः उन पुराणों के माध्यम से जन सामान्य भी उन गूढ़ तत्त्वों को भी आसानी से समझ लेता है।इस प्रकार स्पष्ट है कि इसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए ही महर्षि वेदव्यास का अवतार हुआ है।
स्वार्थ -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
सामाजिक सम्बन्धों मे स्वार्थ की अहं भूमिका है।संसार का प्रत्येक प्राणी स्वार्थवश ही परस्पर प्रीति करता है।माता-पिता अपनी सन्तानों का पालन-पोषण इसलिए करते हैं कि वे बुढ़ापे मे हमारे काम आयेंगे।पुत्र भी माता-पिता की सेवा इसलिए करते हैं ; जिससे समाज मे हमारी प्रसिद्धि हो तथा अन्त मे हमें भी स्वर्ग की प्राप्ति हो।इसी प्रकार अन्य सम्बन्धों के विषय मे भी कहा जा सकता है।
सामान्य रूप से स्वार्थ दो प्रकार का होता है --- सत् स्वार्थ और असत् स्वार्थ।सत् स्वार्थ के भी दो भेद हैं ---
1-- संसार मे अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो यह चाहते हैं कि अमुक व्यक्ति से हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय किन्तु उसकी हानि न हो।
2-- कुछ ऐसे भी महापुरुष हैं जो चाहते हैं कि अमुक व्यक्ति से हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय और उस व्यक्ति का भी भला हो जाय।
असत् स्वार्थ ---- असत् स्वार्थ भी दो प्रकार का होता है ---
1-- संसार मे अनेक व्यक्ति हैं जो दूसरों से अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं।इसके परिणाम स्वरूप दूसरे की हानि हो या न हो।इससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।परन्तु उनका स्वार्थ अवश्य सिद्ध हो।यहाँ केवल स्वार्थपूर्ति की ही प्रधानता रहती है।
2-- संसार मे अनेक ऐसे व्यक्ति हैं ; जो यह चाहते हैं कि अमुक व्यक्ति से हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय और उसकी हानि भी हो जाय।यह सर्वाधिक गर्हित स्वार्थ है।
हम सब सामाजिक प्राणी हैं।समाज मे रहते हुए परस्पर स्वार्थ-पूर्ति के बन्धन मे बँधे रहते हैं।फिर भी उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान मे रखते हुए सन्मार्ग द्वारा स्वार्थ-पूर्ति की जाय तो सामाजिक सम्बन्धों मे कटुता नहीं आयेगी।एक दूसरे के स्वार्थों को समझते हुए चलने पर सामाजिक सम्बन्धों की मधुरता एवं पवित्रता सदैव बनी रहेगी।
अनुपम देवर लक्ष्मण जी --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
पारिवारिक सम्बन्धों मे भाभी और देवर का सम्बन्ध अत्यन्त पवित्र होता है।हमारे सद्ग्रन्थों मे अनेक देवरों का वर्णन हुआ है ; किन्तु लक्ष्मण जैसा देवर कहीं नहीं मिलता है।वाल्मीकीय रामायण के अनुसार सीता जी का अन्वेषण करते हुए श्री राम और लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे।वहाँ सुग्रीव ने बताया कि एक दिन कोई राक्षस विमान द्वारा किसी स्त्री को बलात् लिये जा रहा था।वह स्त्री हा राम ! हा लक्ष्मण ! पुकारती हुई रो रही थी।उसने अपनी चादर और कई आभूषण नीचे गिरा दिया था।हम लोगों ने उन वस्तुओं को अपने पास रख लिया है।अब आप स्वयं देख लें कि वे सीता जी के ही हैं अथवा किसी दूसरे के हैं।
श्री राम ने उन आभूषणों को पहले तो गले लगाया फिर लक्ष्मण से कहा -- देखो लक्ष्मण ; ये आभूषण सीता के ही हैं।उस समय लक्ष्मण ने कहा -- भैया ! मै इन बाजूबन्दों और कुण्डलों को तो नहीं पहचानता हूँ किन्तु प्रतिदिन भाभी के चरणों मे जब प्रणाम करता था ; तब इन नूपुरों पर दृष्टि पड़ जाती थी।इसलिए इन नूपुरों को अवश्य पहचानता हूँ ---
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।।
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि लक्ष्मण जी अयोध्या मे प्रतिदिन सीता जी का चरण-वन्दन करते थे।वनवास काल मे भी दीर्घकाल तक साथ रहे और नित्य दर्शन-चरण-वन्दन आदि करते थे।परन्तु कभी भी चरणों के अतिरिक्त ऊपरी अंगों पर दृष्टि ही नहीं डाली।इसलिए वे सीता जी के बाजूबन्द और कुण्डल को नहीं पहचान पाये।यह है एक आदर्श देवर की मर्यादा और भारतीय संस्कृति की अमूल्य विशेषता।ऐसा आदर्श और ऐसी मर्यादा अन्यत्र दुर्लभ है।अतः बड़े गर्व के साथ कहा जा सकता है कि लक्ष्मण जी अनुपम देवर थे।
Tuesday, 20 September 2016
ध्रुव पर कृपा करने वाले श्रीहरि -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
स्वायम्भुव मनु के पुत्र महाराजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं -- सुरुचि और सुनीति।राजा सुरुचि को अधिक चाहते थे।एक दिन सुरुचि-पुत्र उत्तम अपने पिता की गोद मे बैठा था।उसे देखकर सुनीति-पुत्र ध्रुव ने भी पिता की गोद मे बैठने की इच्छा व्यक्त की।परन्तु राजा ने उन्हें नहीं बैठाया।साथ ही वहीं पर बैठी हुई सौतेली माता सुरुचि ने भी ध्रुव को बहुत दुत्कारा।बेचारे पाँच वर्ष के बच्चे ध्रुव रोते हुए अपनी माता के पास आये और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।बच्चे की बात को सुनकर सुनीति को भी बहुत दुःख हुआ किन्तु मन मसोस कर रह गयीं।उन्होंने समझा बुझाकर ध्रुव को शान्त किया।
बाद मे सुनीति ने ध्रुव से कहा -- बेटा ! तू दूसरों के अमंगल की कामना मत कर ; बल्कि श्री अधोक्षज भगवान श्रीहरि के चरण-कमलों की आराधना मे लग जा।इतना सुनते ही ध्रुव जी माता की आज्ञा लेकर तप करने के लिए वन की ओर चल पड़े।मार्ग मे देवर्षि नारद ने उन्हें तप की कठिनाइयों को बता कर वापस लौटाना चाहा किन्तु वे अपनी बात पर अटल रहे।अतः उनकी प्रबल भक्ति भावना को देखकर नारद जी ने उन्हें द्वादशाक्षर मन्त्र -- " ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय " जपने का उपदेश दिया।इसके बाद वे देवर्षि को प्रणाम करके मधुवन की ओर चल पड़े।
वे मधुवन मे पहुँच कर नारद जी के उपदेशानुसार परम पुरुष श्री नारायण जी की उपासना करने लगे।उन्होंने अन्न त्याग दिया।तीन-तीन रात्रि के अन्तर पर केवल कैथा और बेर खाकर तप करने लगे।इस प्रकार एक महीना व्यतीत किया।दूसरे महीने मे छः-छः दिन के बाद घास और पत्ते खाकर उपासना करने लगे।तीसरे मास मे नौ नौ दिनों के बाद केवल जल पीकर रहने लगे।चौथे महीने मे श्वास पर भी नियंत्रण कर लिया।वे बारह-बारह दिन बाद केवल वायु पीकर आराधना करने लगे।पाँचवें महीने मे श्वास को भी रोक कर एक पैर पर खड़े होकर तप करने लगे।उनकी इस कठोर तपस्या से सम्पूर्ण त्रैलोक्य काँप उठा।उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी प्राणियों का श्वास-प्रश्वास अवरुद्ध हो गया।इससे घबरा कर सभी लोक और लोकपाल भगवान श्रीहरि के पास गये।श्रीहरि ने उनको समझाया कि आप लोग भयभीत न हों।मै उस बालक को इस दुष्कर तप से निवृत्त कर दूँगा।
इधर श्रीहरि अपने भक्त को देखने के लिए मधुवन गये।उस समय ध्रुव जी अपने तीव्र योगाभ्यास से एकाग्र हुई बुद्धि के द्वारा भगवान की जिस देदीप्यमान मूर्ति का ध्यान कर रहे थे ; वह सहसा विलुप्त हो गयी।इससे घबरा कर जब उन्होंने अपने नेत्र खोले तब उनके समक्ष श्रीहरि विराजमान थे।भगवान का दर्शन पाकर ध्रुव जी अधीर हो गये।वे हाथ जोड़कर स्तुति करना चाहते थे ; परन्तु किस प्रकार करें ; इसका ज्ञान ही नहीं था।भगवान ने अपने वेदमय शंख से ध्रुव का गाल छू लिया।इतने से ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी।वे भक्तिपूर्वक भगवान की स्तुति करने लगे।
ध्रुव जी की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा -- हे राजकुमार ! मै तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ।मै तुझे वह ध्रुवलोक प्रदान करता हूँ ; जिसके चारों ओर सभी ग्रह ; नक्षत्र और तारागण चक्कर लगाते रहते हैं।इतना ही नहीं ; बल्कि धर्म ; अग्नि ; कश्यप ; शुक्र एवं सप्तर्षिगण भी उसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं।यहाँ भूलोक मे भी तेरे पिता तुझे राजसिंहासन प्रदान कर वन चले जायेंगे और तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्म पूर्वक शासन करेगा।उसके बाद तू मेरे धाम को प्राप्त करेगा और पुनर्जन्म से मुक्त हो जायेगा।इस प्रकार ध्रुव को अचल वरदान प्रदान कर श्रीहरि अपने लोक को चले गये।
गजेन्द्र के उद्धारक श्रीहरि -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
प्राचीन काल मे द्रविड़ देश मे इन्द्रद्युम्न नामक एक परम धार्मिक राजा राज्य करते थे।वे भगवान के अनन्य उपासक थे।दीर्घकाल तक शासन करने के बाद वे राजपाट छोड़कर तप करने के लिए मलय पर्वत पर चले गये।एक दिन वे भगवान की आराधना मे ध्यानमग्न थे ; तभी अपने शिष्यों सहित अगस्त्य मुनि आ गये।राजा इस प्रकार ध्यानमग्न थे कि उन्हें मुनि के आगमन की जानकारी ही नहीं हुई।इसलिए वे उनका सत्कार नहीं कर सके।परन्तु यह बात मुनि के समझ मे नहीं आई।अतः उन्होंने क्रुद्ध होकर राजा को अज्ञानी हाथी होने का शाप दे दिया।
कालान्तर मे उसी शाप के कारण राजा इन्द्रद्युम्न हाथी की योनि मे उत्पन्न हुए।वे अनेक हाथी-हाथिनियों के सरदार के रूप मे त्रिकूट पर्वत के एक सघन वन मे रहने लगे।एक बार ग्रीष्म ऋतु की मध्याह्न कालीन धूप से व्याकुल होकर वह गजराज अनेक साथियों के साथ सरोवर तट पर गया।पहले तो पानी पीकर प्यास बुझाई फिर मित्रों सहित जलक्रीडा करने लगा।उसी समय एक बलवान ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया।गजराज ने पैर छुड़ाने का भरपूर प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुआ।दोनों मे दीर्घकाल तक संघर्ष चलता रहा।अन्त मे गजेन्द्र ने पूर्वजन्म मे सीखे हुए स्तोत्रों द्वारा भगवान श्रीहरि की स्तुति करने लगा।भगवान उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर प्रकट हो गये।गजेन्द्र ने जब देखा कि भगवान मेरी सहायता के लिए आ गये हैं तब उसने अपने सूँड मे कमल का एक पुष्प लेकर प्रभुवर को अर्पित किया।भगवान ने गज और ग्राह दोनो को सरोवर के बाहर निकाला और चक्र सुदर्शन से ग्राह का मुह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त करा दिया।
इधर ग्राह भी दिव्य शरीर धारण कर खड़ा हो गया।वस्तुतः वह पूर्व जन्म मे " हूहू " नामक एक गन्धर्व था।परन्तु देवल के शाप के कारण इस जन्म मे ग्राह हो गया था।भगवान की कृपा से वह भी इस योनि से मुक्त होकर अपने लोक को चला गया।इधर गजेन्द्र भी भगवान के स्पर्श से अज्ञान-बन्धन से मुक्त होकर भगवान के ही समान रूप वाला हो गया।भगवान उसे गरुड पर बैठाकर अपने धाम मे ले गये और उसे अपना पार्षद बना दिया।इस प्रकार गजेन्द्र के उद्धारक श्रीहरि का प्राकट्य हुआ था।
Sunday, 18 September 2016
कल्कि अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे कल्कि अवतार की गणना बाईसवें स्थान पर की गयी है।श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे ; तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णु जी विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर मे कल्कि नाम से अवतरित होंगे ---
अथासौ युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः।।
महाभारत के अनुसार कलियुग मे अधर्म की वृद्धि एवं धर्म का ह्रास हो जायेगा।सभी सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्ध समाप्त हो जायेंगे।सर्वत्र पाप ; दुःख ; दरिद्रता ; अनीति ; अनाचार आदि का बोल-बाला हो जायेगा।तब सम्भल ग्राम मे विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर मे भगवान कल्कि का अवतार होगा।वे महान् बुद्धि एवं पराक्रम से सम्पन्न ; महात्मा ; सदाचारी और सम्पूर्ण प्रजा के शुभेच्छु होंगे।उनके पास वाहन ; अस्त्र-शस्त्र ; योद्धा ; कवच आदि सब कुछ होगा।वे धर्मविजयी चक्रवर्ती राजा होंगे।वे सम्पूर्ण विश्व को आनन्द प्रदान करने वाले होंगे।उनके सत्प्रयासों से कलियुग का अन्त होगा।
भगवान कल्कि जी सभी दुष्टों ; दस्युओं एवं नीच स्वभाव वाले लोगों का संहार करेंगे।वे सभी पातकियों ; दुराचारियों एवं दुष्टों का विनाश कर अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करेंगे और उसमे सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर देंगे।उनका यश और कर्म अत्यन्त पवित्र होगा।वे भगवान स्वयम्भुव विधाता द्वारा चलायी गयी मर्यादाओं की स्थापना करके तपस्या करने के लिए वन मे प्रवेश करेंगे।बाद मे अन्य लोग भी उनका अनुसरण करेंगे।इससे समाज के प्रत्येक व्यक्ति मे पवित्रता और सात्त्विकता का भाव उत्पन्न होगा।इससे सम्पूर्ण विश्व मे सुख-शान्ति का वातावरण बन जायेगा।
बुद्धावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे भगवान बुद्ध की गणना इक्कीसवें स्थान पर की गयी है।श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार उनका जन्म कलियुग आ जाने पर मगध देश ( बिहार ) मे अजन के पुत्र रूप मे देवद्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिए होगा ---
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति।।
अग्निपुराण मे बुद्धदेव की प्रतिमा का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि ये ऊँचे पद्मासन पर बैठे हैं।उनके एक हाथ मे वरद और दूसरे हाथ मे अभय मुद्रा है।वे शान्तस्वरूप हैं।उनके शरीर का रंग गोरा और कान लम्बे हैं।वे सुन्दर पीत वस्त्र से आवृत्त हैं।परन्तु इस समय बौद्ध धर्म के प्रवर्तक जिन भगवान बुद्ध की चर्चा की जाती है ; उनका जन्म 563 ईसा पूर्व मे वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को लुम्बिनी वन मे हुआ था।उनके पिता का नाम शुद्धोधन एवं माता का नाम महामाया था।
इस प्रकार पुराण-वर्णित बुद्ध और बौद्ध-धर्म-प्रचारक गौतम बुद्ध के जन्मस्थान और पिता के नाम मे अन्तर पाया जाता है।अतः यह शोध का विषय है कि ये दोनों बुद्ध एक ही हैं अथवा भिन्न-भिन्न।