Tuesday, 20 September 2016

ध्रुव पर कृपा करने वाले श्रीहरि -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          स्वायम्भुव मनु के पुत्र महाराजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं -- सुरुचि और सुनीति।राजा सुरुचि को अधिक चाहते थे।एक दिन सुरुचि-पुत्र उत्तम अपने पिता की गोद मे बैठा था।उसे देखकर सुनीति-पुत्र ध्रुव ने भी पिता की गोद मे बैठने की इच्छा व्यक्त की।परन्तु राजा ने उन्हें नहीं बैठाया।साथ ही वहीं पर बैठी हुई सौतेली माता सुरुचि ने भी ध्रुव को बहुत दुत्कारा।बेचारे पाँच वर्ष के बच्चे ध्रुव रोते हुए अपनी माता के पास आये और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।बच्चे की बात को सुनकर सुनीति को भी बहुत दुःख हुआ किन्तु मन मसोस कर रह गयीं।उन्होंने समझा बुझाकर ध्रुव को शान्त किया।
         बाद मे सुनीति ने ध्रुव से कहा -- बेटा ! तू दूसरों के अमंगल की कामना मत कर ; बल्कि श्री अधोक्षज भगवान श्रीहरि के चरण-कमलों की आराधना मे लग जा।इतना सुनते ही ध्रुव जी माता की आज्ञा लेकर तप करने के लिए वन की ओर चल पड़े।मार्ग मे देवर्षि नारद ने उन्हें तप की कठिनाइयों को बता कर वापस लौटाना चाहा किन्तु वे अपनी बात पर अटल रहे।अतः उनकी प्रबल भक्ति भावना को देखकर नारद जी ने उन्हें द्वादशाक्षर मन्त्र -- " ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय " जपने का उपदेश दिया।इसके बाद वे देवर्षि को प्रणाम करके मधुवन की ओर चल पड़े।
         वे मधुवन मे पहुँच कर नारद जी के उपदेशानुसार परम पुरुष श्री नारायण जी की उपासना करने लगे।उन्होंने अन्न त्याग दिया।तीन-तीन रात्रि के अन्तर पर केवल कैथा और बेर खाकर तप करने लगे।इस प्रकार एक महीना व्यतीत किया।दूसरे महीने मे छः-छः दिन के बाद घास और पत्ते खाकर उपासना करने लगे।तीसरे मास मे नौ नौ दिनों के बाद केवल जल पीकर रहने लगे।चौथे महीने मे श्वास पर भी नियंत्रण कर लिया।वे बारह-बारह दिन बाद केवल वायु पीकर आराधना करने लगे।पाँचवें महीने मे श्वास को भी रोक कर एक पैर पर खड़े होकर तप करने लगे।उनकी इस कठोर तपस्या से सम्पूर्ण त्रैलोक्य काँप उठा।उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी प्राणियों का श्वास-प्रश्वास अवरुद्ध हो गया।इससे घबरा कर सभी लोक और लोकपाल भगवान श्रीहरि के पास गये।श्रीहरि ने उनको समझाया कि आप लोग भयभीत न हों।मै उस बालक को इस दुष्कर तप से निवृत्त कर दूँगा।
        इधर श्रीहरि अपने भक्त को देखने के लिए मधुवन गये।उस समय ध्रुव जी अपने तीव्र योगाभ्यास से एकाग्र हुई बुद्धि के द्वारा भगवान की जिस देदीप्यमान मूर्ति का ध्यान कर रहे थे ; वह सहसा विलुप्त हो गयी।इससे घबरा कर जब उन्होंने अपने नेत्र खोले तब उनके समक्ष श्रीहरि विराजमान थे।भगवान का दर्शन पाकर ध्रुव जी अधीर हो गये।वे हाथ जोड़कर स्तुति करना चाहते थे ; परन्तु किस प्रकार करें ; इसका ज्ञान ही नहीं था।भगवान ने अपने वेदमय शंख से ध्रुव का गाल छू लिया।इतने से ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी।वे भक्तिपूर्वक भगवान की स्तुति करने लगे।
         ध्रुव जी की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा -- हे राजकुमार ! मै तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ।मै तुझे वह ध्रुवलोक प्रदान करता हूँ ; जिसके चारों ओर सभी ग्रह ; नक्षत्र और तारागण चक्कर लगाते रहते हैं।इतना ही नहीं ; बल्कि धर्म ; अग्नि ; कश्यप ; शुक्र एवं सप्तर्षिगण भी उसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं।यहाँ भूलोक मे भी तेरे पिता तुझे राजसिंहासन प्रदान कर वन चले जायेंगे और तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्म पूर्वक शासन करेगा।उसके बाद तू मेरे धाम को प्राप्त करेगा और पुनर्जन्म से मुक्त हो जायेगा।इस प्रकार ध्रुव को अचल वरदान प्रदान कर श्रीहरि अपने लोक को चले गये।

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