वृत्ति व्रत -----
भगवान शिव जी एवं भगवान विष्णु जी की अनुकम्पा प्राप्त करने के विविध साधनों मे वृत्ति व्रत का स्थान सर्वथा उल्लेखनीय है।यह व्रत एक वर्ष के लिए होता है।व्रती किसी शुभ दिन मे प्रातः स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर एक वर्ष तक निरन्तर भगवान शिव जी एवं सर्वेश्वर विष्णु जी को पञ्चामृत से स्नान कराये।वर्षान्त मे उद्यापन करे।उस दिन ब्राह्मण को गौ ; शंख एवं स्वर्ण का दान करे।इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य सुदीर्घ काल तक शिवलोक मे सानन्द निवास करता है।बाद मे पुण्य क्षीण होने पर पृथ्वी पर जन्म लेकर राजा बनता है।
सूर्य व्रत -----
सामान्य रूप से माघ मास मे स्नान का बहुत अधिक महत्त्व है।यदि उसमे कुछ क्रियायें और जोड़ दी जायें तो और अधिक पुण्यदायी बन जाता है।इसी प्रकार का एक व्रत है ; जिसे सूर्य व्रत कहा जाता है।इसमे भी माघ मास भर प्रातः स्नान का विधान है।अतः व्रती प्रातः स्नान आदि करके माघ मास भर स्नान करने का संकल्प ले।फिर प्रतिदिन भगवन्नाम स्मरण सहित प्रातः स्नान करे।अन्त मे ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे।उन्हें पुष्पमाला ; वस्त्राभूषण एवं सुस्वादु भोजन-दक्षिणा आदि से सन्तुष्ट करे।इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य आरोग्य एवं सौभाग्य को प्राप्त करता है।वह सुखमय जीवन व्यतीत करने के बाद अन्त मे कल्प-पर्यन्त सूर्यलोक मे निवास करने का सौभाग्य प्राप्त करता है।
वैष्णव व्रत ----
चातुर्मास्य व्रतों मे वैष्णव व्रत का महत्त्व पूर्ण स्थान है।इस व्रत का आरम्भ आषाढ़ मास मे किया जाता है।व्रती संकल्प पूर्वक आषाढ़ आदि चार मासों मे प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करे।कार्तिक पूर्णिमा को व्रत का उद्यापन करे।उस दिन ब्राह्मण को घृतकुम्भ एवं गौ का दान करे।उसके बाद अपनी सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मण-भोजन कराये।इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य की सभी कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह सुखमय जीवन व्यतीत करने के बाद अन्त मे विष्णुलोक को प्राप्त करता है।
दीप व्रत ------
देव-पूजन की भाँति उन्हें दीपदान करने का भी पर्याप्त महत्त्व है।अतः व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर अपने इष्टदेव को एक नियत समय तक दीपदान करने का संकल्प ले।इसमे विशेषकर शिव एवं विष्णु को दीपदान किया जाता है।अतः व्रती प्रतिदिन सन्ध्या के समय दीपदान करे।सम्पूर्ण व्रतकाल तक अभक्ष्य पदार्थों एवं तेल का सेवन न करे।नियत समय के बाद व्रत का उद्यापन करे।उस दिन ब्राह्मण को एक दीपक ; स्वर्ण-चक्र ; त्रिशूल तथा दो वस्त्र प्रदान करे।इस व्रत के प्रभाव से व्रती महान् तेजस्वी हो जाता है।वह सुन्दर कान्तिवान एवं ऐश्वर्यवान हो जाता है।
सप्तसुन्दरक व्रत -----
मातेश्वरी गौरी जी को सन्तुष्ट करने वाले व्रतों मे इस व्रत का महत्त्व पूर्ण स्थान है।यह व्रत एक सप्ताह के लिए होता है।अतः व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।फिर एक सप्ताह तक एकभुक्त व्रत करे।प्रतिदिन प्रातः गन्ध ; पुष्प ; लाल चन्दन आदि से गौरी जी का पूजन करे।प्रतिदिन क्रमशः कुमुदा ; माधवी ; गौरी ; भवानी ; पार्वती ; उमा और काली -- इन सात नामों से एक-एक सुवासिनी स्त्री का पुष्पाक्षत ; चन्दन ; कुंकुम ; ताम्बूल ; नारिकेल एवं अलंकरणों से पूजन करके " कुमुदा प्रीयताम् " कहकर विसर्जन करे।आठवें दिन उन्हीं सुपूजित स्त्रियों को षड् रस भोजन कराये।उसके बाद उन्हें वस्त्र ; माला ; आभूषण ; दर्पण आदि प्रदान कर आशीष ग्रहण करे।उस दिन एक ब्राह्मण का भी विधिवत् पूजन करे।इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य को सुन्दर शरीर एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
वरुण व्रत -----
यह व्रत भी बहुत महत्तव पूर्ण एवं पुण्यदायक है।इसे चैत्र मास भर किया जाता है।अतः व्रती प्रातः स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर पूरे चैत्र मास भर हर प्रकार के सुगंधित पदार्थों का परित्याग करे।व्रतान्त मे ब्राह्मण को एक सीपी ; दो श्वेत वस्त्र एवं दक्षिणा प्रदान कर सन्तुष्ट करे।इस व्रत को करने से मनुष्य की सभी कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह सानन्द जीवन जीने के बाद अन्त मे वरुण लोक को प्राप्त करता है।
Saturday, 10 September 2016
प्रकीर्ण व्रत 4
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment