Wednesday, 7 September 2016

अयन-व्रत --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           वर्ष मे दो अयन होते हैं -- उत्तरायण और दक्षिणायन।उत्तरायण को सौम्यायन भी कहा जाता है।यह मकर की संक्रान्ति से आरम्भ होकर मिथुन की संक्रान्ति तक छः महीने रहता है।इसमे शिशिर ; वसन्त और ग्रीष्म -- ये तीन ऋतुयें होती हैं।प्रत्येक ऋतु दो मास की होती है।सौम्यायन या उत्तरायण को देवताओं का दिन कहा जाता है।इसमे विवाह ; वधू-प्रवेश ; उपनयन ; नवीन गृह प्रवेश ; दीक्षा ग्रहण आदि अनेक शुभ कार्य होते हैं।
           दक्षिणायन को याम्यायन भी कहा जाता है।यह कर्क की संक्रान्ति से लेकर धनु की संक्रान्ति तक रहता है।इसमे वर्षा ; शरद् और हेमन्त नामक तीन ऋतुयें होती हैं।यह अयन भी छः मास का होता है।इसमे पितृ कार्य की प्रधानता रहती है।वृश्चिक की संक्रान्ति मे विवाह ; वधू-प्रवेश आदि शुभ कार्य होते हैं।
विधि ----- निर्णय-सिन्धु मे उपलब्ध आपस्तम्ब के एक उद्धरण से ज्ञात होता है कि उत्तरायण ; दक्षिणायन और विषव ( मेष और तुला ) संक्रान्ति मे तीन रात्रि का उपवास एवं सूर्य पूजन करना चाहिए।परन्तु वसिष्ठ का कथन है कि यदि इतनी सामर्थ्य न हो तो दक्षिणायन और उत्तरायण की संक्रान्ति मे अहोरात्र ( एक दिन रात्रि ) का उपवास और स्नान करे।
माहात्म्य --- अयन व्रत एवं सूर्य पूजन से मनुष्य की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।साथ ही वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।इस अवसर पर गंगा आदि पवित्र नदियों मे स्नान से भी यही फल होता है।भविष्य पुराण के अनुसार जो व्यक्ति एक अयन भर मधु और घृत को त्याग कर अन्त मे घृत और गौ का दान करता है।साथ ही ब्राह्मणों को घृत और पायस का भोजन कराता है ; उसे शील और आरोग्य की प्राप्ति होती है।इसे शील व्रत कहा जाता है।

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