Tuesday, 20 September 2016

गजेन्द्र के उद्धारक श्रीहरि -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           प्राचीन काल मे द्रविड़ देश मे इन्द्रद्युम्न नामक एक परम धार्मिक राजा राज्य करते थे।वे भगवान के अनन्य उपासक थे।दीर्घकाल तक शासन करने के बाद वे राजपाट छोड़कर तप करने के लिए मलय पर्वत पर चले गये।एक दिन वे भगवान की आराधना मे ध्यानमग्न थे ; तभी अपने शिष्यों सहित अगस्त्य मुनि आ गये।राजा इस प्रकार ध्यानमग्न थे कि उन्हें मुनि के आगमन की जानकारी ही नहीं हुई।इसलिए वे उनका सत्कार नहीं कर सके।परन्तु यह बात मुनि के समझ मे नहीं आई।अतः उन्होंने क्रुद्ध होकर राजा को अज्ञानी हाथी होने का शाप दे दिया।
          कालान्तर मे उसी शाप के कारण राजा इन्द्रद्युम्न हाथी की योनि मे उत्पन्न हुए।वे अनेक हाथी-हाथिनियों के सरदार के रूप मे त्रिकूट पर्वत के एक सघन वन मे रहने लगे।एक बार ग्रीष्म ऋतु की मध्याह्न कालीन धूप से व्याकुल होकर वह गजराज अनेक साथियों के साथ सरोवर तट पर गया।पहले तो पानी पीकर प्यास बुझाई फिर मित्रों सहित जलक्रीडा करने लगा।उसी समय एक बलवान ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया।गजराज ने पैर छुड़ाने का भरपूर प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुआ।दोनों मे दीर्घकाल तक संघर्ष चलता रहा।अन्त मे गजेन्द्र ने पूर्वजन्म मे सीखे हुए स्तोत्रों द्वारा भगवान श्रीहरि की स्तुति करने लगा।भगवान उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर प्रकट हो गये।गजेन्द्र ने जब देखा कि भगवान मेरी सहायता के लिए आ गये हैं तब उसने अपने सूँड मे कमल का एक पुष्प लेकर प्रभुवर को अर्पित किया।भगवान ने गज और ग्राह दोनो को सरोवर के बाहर निकाला और चक्र सुदर्शन से ग्राह का मुह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त करा दिया।
         इधर ग्राह भी दिव्य शरीर धारण कर खड़ा हो गया।वस्तुतः वह पूर्व जन्म मे  " हूहू " नामक एक गन्धर्व था।परन्तु देवल के शाप के कारण इस जन्म मे ग्राह हो गया था।भगवान की कृपा से वह भी इस योनि से मुक्त होकर अपने लोक को चला गया।इधर गजेन्द्र भी भगवान के स्पर्श से अज्ञान-बन्धन से मुक्त होकर भगवान के ही समान रूप वाला हो गया।भगवान उसे गरुड पर बैठाकर अपने धाम मे ले गये और उसे अपना पार्षद बना दिया।इस प्रकार गजेन्द्र के उद्धारक श्रीहरि का प्राकट्य हुआ था।

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