सामाजिक सम्बन्धों मे स्वार्थ की अहं भूमिका है।संसार का प्रत्येक प्राणी स्वार्थवश ही परस्पर प्रीति करता है।माता-पिता अपनी सन्तानों का पालन-पोषण इसलिए करते हैं कि वे बुढ़ापे मे हमारे काम आयेंगे।पुत्र भी माता-पिता की सेवा इसलिए करते हैं ; जिससे समाज मे हमारी प्रसिद्धि हो तथा अन्त मे हमें भी स्वर्ग की प्राप्ति हो।इसी प्रकार अन्य सम्बन्धों के विषय मे भी कहा जा सकता है।
सामान्य रूप से स्वार्थ दो प्रकार का होता है --- सत् स्वार्थ और असत् स्वार्थ।सत् स्वार्थ के भी दो भेद हैं ---
1-- संसार मे अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो यह चाहते हैं कि अमुक व्यक्ति से हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय किन्तु उसकी हानि न हो।
2-- कुछ ऐसे भी महापुरुष हैं जो चाहते हैं कि अमुक व्यक्ति से हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय और उस व्यक्ति का भी भला हो जाय।
असत् स्वार्थ ---- असत् स्वार्थ भी दो प्रकार का होता है ---
1-- संसार मे अनेक व्यक्ति हैं जो दूसरों से अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं।इसके परिणाम स्वरूप दूसरे की हानि हो या न हो।इससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।परन्तु उनका स्वार्थ अवश्य सिद्ध हो।यहाँ केवल स्वार्थपूर्ति की ही प्रधानता रहती है।
2-- संसार मे अनेक ऐसे व्यक्ति हैं ; जो यह चाहते हैं कि अमुक व्यक्ति से हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय और उसकी हानि भी हो जाय।यह सर्वाधिक गर्हित स्वार्थ है।
हम सब सामाजिक प्राणी हैं।समाज मे रहते हुए परस्पर स्वार्थ-पूर्ति के बन्धन मे बँधे रहते हैं।फिर भी उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान मे रखते हुए सन्मार्ग द्वारा स्वार्थ-पूर्ति की जाय तो सामाजिक सम्बन्धों मे कटुता नहीं आयेगी।एक दूसरे के स्वार्थों को समझते हुए चलने पर सामाजिक सम्बन्धों की मधुरता एवं पवित्रता सदैव बनी रहेगी।
Thursday, 22 September 2016
स्वार्थ -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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