Saturday, 30 April 2016

शिव जी का हनुमदवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           शिव जी भगवान श्री राम के अनन्य भक्त हैं।वे सदैव उनकी सेवा एवं हित करने मे तत्पर रहते हैं।एक बार शिव जी को विष्णु के मोहिनी स्वरूप का दर्शन हुआ।उन्हें देखते हुए शिव जी कामातुर हो उठे।यद्यपि वे अपनी काम-भावना को शान्त कर सकते थे ; किन्तु रामकार्य की सिद्धि के लिए अपना वीर्यपात कर दिया।
          इसके बाद सप्तर्षियों ने उस वीर्य को पत्रपुटक मे सुरक्षित रख दिया।फिर उचित समय पर उसे गौतम-कन्या अञ्जनी के गर्भ मे कर्णमार्ग के द्वारा स्थापित कर दिया।समय आने पर उस गर्भ से शिव जी ने महापराक्रमी वानर के रूप मे अवतार लिया।उस समय उनका नाम हनुमान रखा गया।
          हनुमान जी ने शैशव काल से ही अनेक विचित्र लीलायें आरम्भ कर दीं।एक बार उन्होंने उदय होते हुए सूर्य के बिम्ब को देखा।उन्होंने समझा कि यह कोई फल है।अतः उसे प्राप्त करने के लिए उन्होंने आकाश मे छलांग लगा दी और सूर्य को निगल लिया।फलतः चारों ओर हाहाकार मच गया।देवताओं ने उनकी प्रार्थना की तब उन्होंने उगल दिया।उस समय उन्हें अनेक वरदान प्राप्त हुए।बाद मे हनुमान जी ने सूर्यदेव से विद्याध्ययन भी किया।गुरुदक्षिणा के रूप मे सूर्यदेव ने हनुमान जी को अपने अंश से प्रादुर्भूत सुग्रीव की सेवा मे भेज दिया।
          हनुमान जी का अवतार श्रीराम की सेवा के लिए ही हुआ था।इस सन्दर्भ मे उन्होंने अनेक मनोहर लीलायें कीं।उन्होंने असुरों का मानमर्दन कर भूतल पर श्रीराम भक्ति की स्थापना की और स्वयं भक्ताग्रगण्य होकर सीता राम को सुख प्रदान किया।वे लक्ष्मण के प्राणदाता ; देवताओं के गर्वहारी एवं भक्तों के उद्धारक हैं।वे सदैव श्रीराम कार्य मे ही संलग्न रहते हैं।इसीलिए श्रीरामदूत के रूप मे विख्यात हैं।हनुमान जी का चरित्र अत्यन्त पुण्यदायक है।इसे पढ़ने ; सुनने और सुनाने से मनुष्य को धन-धान्य ; दीर्घायु-आरोग्य एवं सम्पूर्ण अभीष्टों की प्राप्ति होती है।वह इस लोक मे समस्त सुखों को भोगकर अन्त मे मोक्ष को प्राप्त होता है।

शिव जी का दुर्वासावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           प्राचीन काल मे अत्रि नामक एक ब्रह्मवेत्ता तपस्वी थे।उनकी पत्नी का नाम अनसूया था ; जो पातिव्रत धर्म के लिए विश्व-विख्यात थीं।एक बार महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्र-कामना से घोर तप किया।उनके शतवर्षीय दुष्कर तप के प्रभाव से एक अग्निमयी ज्वाला प्रकट हुई।उसने सम्पूर्ण त्रैलोक्य को व्याप्त कर लिया।इससे ऋषि ; मुनि ; देवता आदि चिन्तित हो गये।
            इसके बाद ब्रह्मा ; विष्णु और महेश तीनो लोग मुनिवर के आश्रम मे प्रकट हुए और कहा कि हम तीनो संसार के ईश्वर हैं।हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे ; जो त्रिलोकी मे विख्यात एवं माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे।कालान्तर मे ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा ; विष्णु के अंश से दत्त ( दत्तात्रेय ) और रुद्र के अंश से दुर्वासा का अवतार हुआ।
           दुर्वासा जी रुद्रावतार थे।इसलिए उनका स्वरूप अत्यन्त रौद्र और स्वभाव बहुत क्रोधी था।दुर्वासा जी की अनेक लीलायें प्रसिद्ध हैं।उन्होंने एक बार राजा अम्बरीष की परीक्षा ली थी।सुदर्शन चक्र ने जब अम्बरीष का पीछा किया तब शिव जी ने उन्हें दुर्वासा जी की प्रार्थना करने को कहा था।दुर्वासा के प्रसन्न होने पर भी सुदर्शन चक्र शान्त हुआ था।इन्होंने राम और कृष्ण की भी परीक्षा ली थी।
          यद्यपि दुर्वासा जी बहुत क्रोधी थे ; किन्तु उनके हृदय मे दया और करुणा का विशाल सागर भी लहराता रहता था।एक बार वे नदी मे स्नान कर रहे थे ; तभी उनका अधोवस्त्र प्रवाह मे बह गया।कुछ दूरी पर द्रौपदी स्नान कर रही थी।उसे जब ज्ञात हुआ तब उसने अपने आँचल का एक टुकड़ा फाड़कर उन्हें प्रदान किया।मुनिवर ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि यह टुकड़ा बहुत अधिक बढ़कर तुम्हारी लाज बचायेगा।बाद मे इसी वरदान के कारण कौरव-सभा मे द्रौपदी की लाज बची थी।
           इस प्रकार दुर्वासा जी केवल क्रोधी ही नहीं ; बल्कि दया की प्रतिमूर्ति भी थे।वे अपने दयालु रूप से सज्जनों की रक्षा करते थे और रौद्र रूप से दुष्टों का संहार करते थे।भगवान शिव भी तो इसी प्रकार कल्याण और संहार दोनो क्रियायें करते हैं।अतः उनके अवतार को उसी प्रकार का होना उचित ही है।

Friday, 29 April 2016

शिव जी के योगेश्वरावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          शिव जी बहुत कल्याणकारी देवता हैं।वे लोककल्याण के लिए प्रत्येक कल्प मे विविध रूपों मे अवतरित होते रहते हैं।जिस प्रकार प्रत्येक द्वापरयुग मे वेदव्यास का अवतार होता है ; उसी प्रकार प्रत्येक कलियुग मे शिव जी योगेश्वर रूप मे अवतरित होते हैं।इस समय श्वेतवाराह कल्प का सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है।इस मन्वन्तर मे सत्ताइस बार कलियुग व्यतीत हो चुका है ; अट्ठाईसवाँ कलियुग चल रहा है।अतः इस मन्वन्तर मे शिव जी के अट्ठाईस अवतार हो चुके हैं।उनके नाम इस प्रकार हैं --
1-- प्रथम कलियुग मे शिव जी ने योगेश्वर रूप मे जो अवतार लिया था।उसका नाम महामुनि श्वेत था।उस समय उनके शिष्यों के नाम श्वेत ; श्वेतशिख ; श्वेताश्व तथा श्वेतलोहित थे।
2-- द्वितीय कलियुग मे शिव जी सुतार नाम से अवतरित हुए।उस समय उनके शिष्यों के नाम दुन्दुभि ; शतरूप ; हृषीक तथा केतुमान् थे।
3-- तृतीय कलियुग के योगेश्वर का नाम दमन था।उनके शिष्यों के नाम विशोक ; विशेष ; विपाप और पापनाशन थे।
4-- चौथे कलियुग मे शिव जी के योगेश्वरावतार का नाम सुहोत्र था।उनके शिष्यों के नाम सुमुख ; दुर्मुख ; दुर्दम तथा दुरतिक्रम थे।
5-- पाँचवें कलियुग मे शिव जी के योगेश्वरावतार का नाम कङ्क था।उनके शिष्यों के नाम सनक ; सनातन ; सनन्दन और सनत्कुमार थे।
6-- छठवें कलियुग के योगेश्वर का नाम लोकाक्षि था।उनके शिष्यों के नाम सुधामा ; विरजा ; संजय और विजय थे।
7-- सातवें कलियुग के योखेश्वर का नाम जैगीषव्य था।उनके शिष्यों के नाम सारस्वत ; योगीश ; मेघवाह और सुवाहन थे।
8-- आठवें कलियुग के योगेश्वर का नाम दधिवाहन था।उस समय कपिल ; आसुरि ; पञ्चशिख और शाल्वल नामक चार शिष्य थे।
9-- नौवें कलियुग के योगेश्वर का नाम ऋषभ और उनके शिष्यों के नाम पराशर ; गर्ग ; भार्गव एवं गिरिश थे।
10-- दसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम उग्र था।उनके शिष्यों के नाम भृंग ; बलबन्धु ; नरामित्र और केतुश्रृंग थे।
11-- ग्यारहवे कलियुग मे तप नामक योगेश्वर हुए।लम्बोदर ; लम्बाक्ष ; केशलम्ब और प्रलम्बक नामक चार शिष्य हुए।
12-- बारहवे कलियुग के योगेश्वर का नाम अत्रि और शिष्यों के नाम सर्वज्ञ ; समबुद्धि ; साध्य तथा शर्व थे।
13-- तेरहवें कलियुग मे महामनि बलि योगेश्वर हुए।उनके शिष्यों के नाम सुधामा ; काश्यप ; वसिष्ठ और विरजा था।
14 -- चौदहवें कलियुग के योगेश्वर का नाम गौतम था।उनके शिष्यों के नाम अत्रि ; वशद ; श्रवण और श्नविष्टक थे।
15-- पन्द्रहवें कलियुग के योगेश्वर का नाम वेदशिरा था।उनके शिष्यों के नाम कुणि ; कुणिबाहु ; कुशरीर तथा कुनेत्रक थे।
16-- सोलहवें कलियुग के योगेश्वर गोकर्ण हुए और काश्यप ; उशना ; च्यवन एवं बृहस्पति उनके शिष्य थे।
17-- सत्रहवें कलियुग के योगेशूवर का नाम गुहावासी था।उनके शिष्यों के नाम उतथ्य ; वामदेव ; महायोग और महाबल थे।
18-- अट्ठारहवें कलियुग के योगेश्वर का नाम शिखण्डी था।उनके शिष्यों के नाम वाचःश्रवा ; रुचीक ; श्यावास्य एवं यतीश्वर थे।
19-- उन्नीसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम माली था।उनके शिष्यों के नाम हिरण्यनामा ; कौसल्य ; लोकाक्षि तथा प्रधिमि थे।
20-- बीसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम अट्टहास था।उनके शिष्यों के नाम सुमन्तु ; वर्वरि ; कम्बन्ध और कुलिकन्धर थे।
21-- इक्कीसवें कलियुग मे दारुक नाम के योगेश्वर हुए और प्लक्ष ; दार्भायणि ; केतुमान् तथा गौतम उनके शिष्य हुए।
22-- बाईसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम लांगली भीम था।उनके शिष्यों के नाम भल्लवी ; मधु ; पिंग एवं श्वेतकेतु थे।
23-- तेईसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम श्वेत था।उनके शिष्यों के नाम उशिक ; बृहदश्व ; देवल तथा कवि थे।
24-- चौबीसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम शूली था।उनके शिष्यों के नाम शालिहोत्र ; अग्निवेश ; युवनाश्व एवं शरद्वसु थे।
25-- पचीसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम मुण्डीश्वर था।उनके शिष्यों के नाम छगल ; कुण्डकर्ण ; कुम्भाण्ड एवं प्रवाहक था।
26-- छब्बीसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम सहिष्णु था।उनके शिष्यों के नाम उलूक ; विद्युत ; शम्बूक तथा आश्वलायन थे।
27-- सत्ताईसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम सोमशर्मा था।उनके शिष्यों के नाम अक्षपाद ; कुमार ; उलूक और वत्स थे।
28-- अट्ठाईसवें कलियुग के योगेश्वर का नाम लकुली है।उनके शिष्यों के नाम कुशिक ; गर्ग ; मित्र और तौरुष्य है।

नन्दीश्वर अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           प्राचीन काल मे शिलाद नामक एक धर्मात्मा मुनि ने मृत्युहीन अयोनिज पुत्र प्राप्त करने के इन्द्र की आराधना की।इन्द्रदेव प्रकट तो हुए किन्तु उन्होंने इस प्रकार का पुत्र प्रदान करने मे असमर्थता जतायी।उन्होने इसके लिए शिव जी की आराधना करने का निर्देश दिया।
            शिलाद मुनि ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए तप आरम्भ किया।उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी प्रकट हुए और मुनि से वर माँगने को कहा।मुनिवर ने कहा कि मै आपके ही समान मृत्युहीन अयोनिज पुत्र चाहता सूँ।शिव जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।कालान्तर मे यज्ञक्षेत्र को जोतते समय शिलाद मुनि के शरीर से एक बालक प्रकट हुआ।वह प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्नि के समान प्रभावशाली था।वह त्रिनेत्र ; चतुर्भुज ; जटामुकुटधारी ; त्रिशूल आदि से युक्त और रुद्ररूप था।मुनि ने उन्हें प्रणाम करके कहा कि तुमने मुझे आनन्दित किया है।इसलिए तुम्हारा नाम नन्दी होगा।
         मुनिवर उस बच्चे को अपने आश्रम पर ले गये तब वह बालक मानव स्वरूप हो गया।मुनि ने उसका जातकर्म आदि संस्कार किया।फिर पाँच वर्ष की अवस्था मे ही उसे सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों का सांगोपांग अध्ययन करवा दिया।जब वह बालक सात वर्ष का हुआ तब मित्र और वरुण नामक मुनियों ने बताया कि इस बच्चे की आयु अब केवल एक वर्ष बची है।इसे सुनते ही शिलाद मुनि व्याकुल होकर रोने लगे।उस समय नन्दी ने अपने पिता को सान्त्वना देते हुए कहा कि आप दुःखी न हों।मै शिव जी की आराधना करके दीर्घायु एवं कालजयी बनूँगा।
            नन्दीश्वर जी पिता से आज्ञा लेकर तप करने के लिए वन की ओर चल पड़े।उन्होने वन मे जाकर एकान्त स्थान पर आसन लगाया और देवाधिदेव सदाशिव का ध्यान करके रुद्रमन्त्र का जप आरम्भ कर दिया।शिव जी प्रसन्न होकर पार्वती सहित प्रकट हुए और वर माँगने को कहा।नन्दी उनके चरणों मे लेटकर स्तुति करने लगे।तब शिव जी ने कहा कि तुम्हें मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए क्योंकि तुम मेरे ही समान हो।अब तुम अजर ; अमर ; अव्यय एवं अक्षय होकर मेरे प्रियपात्र बनोगे।इतना कहकर शिव जी ने अपनी माला उतार कर नन्दी के गले मे डाल दी।उस माला के प्रभाव से नन्दीश्वर जी त्रिनेत्र ; दशभुज एवं द्वितीय रुद्र के समान हो गये।
          इसके बाद शिव जी ने पार्वती जी से कहा कि मै नन्दी को सभी गणो का अध्यक्ष बनाना चाहता हूँ।इस विषय मे अपनी सहमति प्रदान करें।पार्वती जी ने कहा कि नन्दी मेरे पुत्र के समान है।अतः मै आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ।शिव जी ने अपने गणो को बुलाकर अभिषेक-सामग्री एकत्रित करने को कहा।बाद मे सभी देवताओं और मुनियों ने मिलकर नन्दी को गणाध्यक्ष पद पर अभिषिक्त किया।उसके बाद सुयशा नामक कन्या के साथ नन्दी का विवाह हो गया।नन्दी ने सबको प्रणाम कर शुभाशीष प्राप्त किया।उस समय शिव जी ने उन्हें वर दिया कि जहाँ मै रहूँगा ; वहीं तुम रहोगे और जहाँ तुम रहोगे ; वहाँ  मै उपस्थित रहूँगा।इस प्रकार वरदान देकर शिव जी सपरिवार स्वस्थान को प्रस्थान कर गये।

शिव जी के दस अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           शिव जी अत्यन्त दयालु एवं भक्तवत्सल हैं।उन्होंने लोकहित के लिए असंख्य अवतार लिये हैं।उनके उन अवतारों मे महाकाल आदि दस अवतार विशेष प्रसिद्ध हैं।ये दसों अवतार इस प्रकार हैं --
1-- महाकाल -- शिव जी के दस अवतारों मे प्रथम अवतार महाकाल के नाम से प्रसिद्ध है।यह सत्पुरुषों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है।इस अवतार की शक्ति का नाम महाकाली है।
2-- तार -- शिव जी के द्वितीय अवतार का नाम तार है।उनकी शक्ति का नाम तारा देवी है।ये दोनो मिलकर अपने भक्तों को भुक्ति ; मुक्ति एवं सुख प्रदान करते हैं।
3-- बाल भुवनेश -- शिव जी का तृतीय अवतार बाल भुवनेश के नाम से प्रसिद्ध है।उनकी शक्ति का नाम बाल भुवनेशी शिवा है।ये सज्जनों को सुख प्रदान करने वाले हैं।
4-- षोडश श्रीविद्येश -- यह शिव जी का चतुर्थ अवतार है।यह अवतार अपने भक्तों के लिए अत्यन्त सुखद एवं भोग-मोक्ष प्रदायक रूप मे प्रसिद्ध है।उनकी शक्ति का नाम षोडशी श्रीविद्या शिवा है।
5-- भैरव -- यह शिव जी का पञ्चम अवतार है।यह अवतार अपने भक्तों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने के लिए विशेष प्रसिद्ध है।इनकी शक्ति का नाम भैरवी गिरिजा है।
6-- छिन्नमस्तक -- शिव जी का षष्ठ अवतार छिन्नमस्तक के रूप मे प्रसिद्ध है।इनकी शक्ति का नाम छिन्नमस्ता है।
7-- धूमवान् -- शिव जी का सप्तम अवतार धूमवान् के नाम प्रसिद्ध है।उस समय इनकी शक्ति के रूप मे धूमावती माता प्रकट हुईं थीं।
8-- बगलामुख -- शिव जी का अष्टम अवतार बगलामुख नाम से विख्यात है।ये अपने भक्तों के लिए परम सुखदायक माने जाते हैं।इनकी शक्ति का नाम बगलामुखी है।इनकी शक्ति एवं सामर्थ्य अपरम्पार है।
9-- मातंग -- शिव जी का नवम अवतार मातंग नाम से प्रसिद्ध है।इनकी शक्ति का नाम शर्वांगी मातंगी है।ये अपने भक्तों की सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली हैं।
10-- कमल -- यह शिव जी का दशम अवतार है।अपने भक्तों को भुक्ति-मुक्ति प्रदान करने मे इनकी विशेष रुचि है।इनकी शक्ति के रूप मे कमला जी अवतरित हुई थीं।

Thursday, 28 April 2016

एकादश रुद्रावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            शिव जी के असंख्य अवतारों मे एकादश रुद्रावतारों का विशेष महत्व है।ये सभी अवतार सुखप्रदाता एवं सुख के आवास हैं।इन रुद्रों के रूप मे स्वयं शिव ने ही देवताओं की कार्यसिद्धि के लिए अवतार लिया था।वे अब भी देवरक्षा हेतु स्वर्ग मे विराजमान रहते हैं।इन अवतारों की कथा का अध्ययन एवं श्रवण करने से असीम सुख की प्राप्ति होती है।अतः इस अवसर का लाभ हम सबको भी उठाना चाहिए।
          प्राचीन काल मे देवताओं और दैत्यों मे प्रायः संघर्ष होता रहता था।एक बार देवगण पराजित होकर अपने पिता महर्षि कश्यप के पास गये और अपनी व्यथा सुनाई।महर्षि ने उन्हें सान्त्वना दी और स्वयं शिव जी की आराधना करने के लिए काशी की ओर चल पड़े।वहाँ पहुँच कर उन्होंने गंगा स्नान किया और एक शिवलिंग की स्थापना करके घोर तप करना प्रारम्भ कर दिया।दीर्घकालीन तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी प्रकट हुए और उनसे वरदान मागने को कहा।कश्यप जी ने कहा कि मै अपने पुत्रों अर्थात् देवताओं के दुःख से बहुत दुःखी हूँ।अतः उनकी सहायता के लिए आप मेरे पुत्र के रूप मे अवतरित होने की कृपा करें।शिव जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
           कश्यप जी ने लौटकर देवताओं को सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।कालान्तर मे उनकी पत्नी सुरभी के उदर से शिव जी एकादश रूपों मे अवतरित हुए।वे ही एकादश रुद्र के रूप मे प्रसिद्ध हुए।उनके नाम इस प्रकार हैं -- कपाली ; पिंगल ; भीम ; विरूपाक्ष ; विलोहित ; शास्ता ; अजपाद ; अहिर्बुध्न्य ; शम्भु ; चण्ड और भव।ये सभी शिवस्वरूप होने के कारण अत्यन्त महान् एवं अर्चनीय हैं।

शिव जी की अष्टमूर्तियाँ -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            विश्व-कल्याण हेतु शिव जी के असंख्य अवतार हुए हैं।उनमे से आठ अवतार बहुत प्रसिद्ध हैं।इन्हें ही अष्टमूर्तियाँ कहा जाता है।ये अवतार मानव-मनोरथों को पूर्ण करने वाले और परम सुखदाता हैं।यह संसार शिव जी की इन्हीं अष्टमूर्तियों का ही स्वरूप है।जिस प्रकार एक सूत मे मणियों के दाने पिरोये रहते हैं ; उसी प्रकार यह संसार भी उन्हीं अष्टमूर्तियों मे व्याप्त होकर स्थित है।ये अष्टमूर्तियाँ शर्व ; भव ; रुद्र ; उग्र ; भीम ; पशुपति ; ईशान और महादेव के नाम से प्रसिद्ध हैं।इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है --
1-- शर्वमूर्ति -- शिव जी का शर्व रूप विश्वम्भरात्मक स्वरूप है।यही चराचर विश्व को धारण करने वाला है।इसके द्वारा ही पृथ्वी अधिष्ठित है।नन्दी और कामधेनु इसी मूर्ति के स्वरूप हैं।इनकी आराधना के लिए " ऊँ शर्वाय क्षितिमूर्तये नमः " सर्वाधिक उपयुक्त मन्त्र है।
2-- भवमूर्ति -- यह भगवान शिव जी का सलिलात्मक स्वरूप है।यही समस्त जीवधारियों को जीवन प्रदान करता है।इसी के द्वारा जल अधिष्ठित है।इनकी उपासना " ऊँ भवाय जलमूर्तये नमः " इस मन्त्र से करनी चाहिए।
3-- रुद्रमूर्ति -- शिव जी की रुद्र नामक मूर्ति आँखों मे प्रकाश स्वरूप है।इसी के द्वारा मनुष्य संसार की विभिन्न वस्तुओं का अवलोकन करता है।अग्नि इसी के द्वारा अधिष्ठित है।इसका तेज असंख्य सूर्यों के समान अनन्त एवं असीम है।इनकी उपासना " ऊँ रुद्राय अग्निमूर्तये नमः " इस मन्त्र से करनी चाहिए।
4-- उग्रमूर्ति -- यह शिव जी का उग्रस्वरूप है।यह जगत् के बाहर भीतर विद्यमान रहता है।यही विश्व का भरण पोषण करता है और स्पन्दित होता है।इनकी उपासना " ऊँ उग्राय वायुमूर्तये नमः " से करनी चाहिए।
5-- भीममूर्ति -- यह शिव जी का सर्वव्यापी आकाशात्मक स्वरूप है।यही सबको अवकाश प्रदान करता है।आकाश इसी के द्वारा अधिष्ठित है।इसकी उपासना का मन्त्र " ऊँ भीमाय आकाशमूर्तये नमः " है।
6-- पशुपतिमूर्ति -- शिव जी का यह स्वरूप समस्त आत्माओं का अधिष्ठान है।यह सम्पूर्ण क्षेत्रों मे निवास करने वाला तथा जीवधारियों के भवपाश को काटने वाला है।क्षेत्रज्ञ इसी के द्वारा अधिष्ठित है।इसकी उपासना के लिए " ऊँ पशुपतये यजमानमूर्तये नमः " मन्त्र विशेष उपयुक्त है।
7-- ईशानमूर्ति -- शिव जी का स्वरूप साक्षात् सूर्यस्वरूप है।यही सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है।यह द्युलोक मे भ्रमण करता रहता है।इसकी उपासना का मन्त्र " ऊँ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः " है।
8-- महादेवमूर्ति -- अमृतमयी रश्मियों से सम्पूर्ण विश्व को आह्लादित करने वाला चन्द्रमा ही शिव जी का महादेव स्वरूप है।इसकी उपासना " ऊँ महादेवाय सोममूर्तये नमः " से करनी चाहिए।
          शास्त्रों मे शिव जी की इन अष्टमूर्तियों के पूजन का विशेष महत्त्व है।जिस प्रकार वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी शाखायें पुष्पित-पल्लवित होती हैं ; उसी प्रकार केवल शिव जी का ही पूजन करने से शिव स्वरूप सम्पूर्ण विश्व परिपुष्ट हो जाता है।जिस प्रकार पिता अपने पुत्र-पौत्र को देखकर हर्षित होता है ; उसी प्रकार विश्व को प्रसन्न देखकर शिव जी भी आनन्दित होते हैं।यदि मनुष्य किसी भी प्राणी को कष्ट देता है तो वह मानो शिव जी को ही पीड़ित कर रहा है।इसलिए समस्त जीवों पर दयादृष्टि रखते हुए भगवान् शिव जी की निरन्तर सेवा एवं आराधना करनी चाहिए।

शिव नामामृतम् -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           यह तो सर्वविदित है कि ईश्वर एक है।वही इस जगत् मे विविध नामों एवं रूपों से विख्यात है।इसलिए भेद-बुद्धि से किसी देवी-देवता को ऊँचा-नीचा बतलाना उचित नहीं है।फिर भी सुविधा की दृष्टि से शिव जी का नाम स्मरण करना विशेष कल्याणप्रद है।वे स्वभाव से निर्गुण होते हुए भी सृष्टि की रचना ; स्थिति एवं लय के लिए क्रमशः ब्रह्मा ; विष्णु और रुद्र के रूप मे प्रकट होते हैं --
    त्रिधा भिन्नो ह्यहं विष्णो ब्रह्मविष्णुहराख्यया।
   सर्गरक्षालयगुणैर्निष्कलोऽपि सदा हरे।।
            इस प्रकार स्पष्ट है कि समस्त देवों के मूल शिव जी ही हैं।अतःउन्हीं की उपासना करना अधिक श्रेयस्कर है।अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है।अन्यथा जितना तर्क-वितर्क किया जायेगा ; भ्रम उतना ही अधिक बढ़ता जायेगा।इसलिए समस्त भ्रान्तियों से मुक्त होकर उस परब्रह्म परमेश्वर शिव का ही नाम स्मरण करना चाहिए।
           शिव का अर्थ ही है कल्याण अथवा कल्याण करना।इसीलिए शिव जी प्राणि मात्र के कल्याण हेतु सदैव तत्पर रहते हैं।विश्व का कल्याण करना ही उनका स्वभाव है।देवगण भी जब जब विपत्ति मे पड़ते हैं ; तब-तब वे शिव जी का ही नाम लेते हैं।इसलिए समस्त कल्यार्थी आस्तिक जनो को चाहिए कि वे नित्य शिव जी का नाम स्मरण करें।क्योंकि शिव नाम स्मरण से ही कल्याण सम्भव है।
           शिव जी आशुतोष एवं अवढर दानी हैं।वे स्वल्पातिस्वल्प आराधना से ही प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्तों की समस्त कामनायें पूर्ण कर देते हैं।वे केवल वरदान ही नहीं ; बल्कि अपना जीवन भी सौंप देते हैं।भस्मासुर प्रसंग मे यही तो हुआ था।आजकल के भागदौड़ भरे जीवन मे किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह दीर्घकालीन व्रत या अनुष्ठान कर सके।वह थोड़े समय मे ही अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है।इस दृष्टि से उनके लिए शिव नाम स्मरण ही अधिक सरल एवं उपयुक्त है।
           शिव जी परम शुद्ध ; बुद्ध एवं सनातन ब्रह्म हैं।वे ही सर्वपूज्य एवं सर्वेश्वर हैं।ब्रह्मा ; विष्णु आदि सभी देवगण उन्हीं का नाम स्मरण कर परम पद को प्राप्त हुए हैं।अतः मनुष्यों को भी चाहिए कि वे सभी भ्रान्तियों से ऊपर उठकर भगवान शिव जी का नाम स्मरण करते रहें।इसी से उन्हें भोग और मोक्ष दोनो की प्राप्ति हो जाती है।संसार की कोई भी ऐसी समस्या नहीं है ; जिसका समाधान शिवस्मरण से न हो सके।
           शिव जी का नाम अमृत तुल्य है।जिस प्रकार देवताओं की जिह्वा मे अमृत का स्पर्श होते ही देवगण अजर अमर हो गये।उसी प्रकार जिस प्राणी की जिह्वा मे शिव जी के नाम का स्पर्श हो जायेगा ; वही अजर अमर हो जायेगा।इसमे तनिक भी सन्देह नहीं है।घोरातिघोर पापी भी इस विलक्षण नाम के स्पर्श से अमरत्व को प्राप्त कर सकता है।पुराणों मे इस प्रकार के असंख्य आख्यान उपलब्ध हैं।अतः हम सबको भी उस परम पवित्र एवं सर्वप्रद शिव-नामामृत का पान अवश्य करना चाहिए।
          शिवपुराण मे स्पष्ट घोषणा की गयी है कि जो पापरूपी दावानल से पीड़ित हैं ; उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान अवश्य करना चाहिए।पापों के दावानल से दग्ध होने वाले लोगों को उस शिवनामामृत के बिना शान्ति नहीं मिल सकती है।जो शिवनाम रूपी सुधा की वृष्टिजनित धारा मे अवगाहन कर रहे हैं ; वे संसार रूपी दावानल के बीच मे खड़े होने पर भी शोक के भागी कदापि नहीं होते हैं --
  शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः।
  पापदावाग्नितप्तानां शान्तिस्तेन विना न हि।।
  शिवेति नामपीयूषवर्षाधारापरिप्लुताः।
  संसारदवमध्येऽपि न शोचन्ति कदाचन।।