नदियों मे गंगा जी का महत्त्व सर्वोपरि है।वे पतित-पावनी एवं पुण्यदायिनी हैं।उनका नाम स्मरण करने मात्र से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है।उनके दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति होती है।यदि स्नान कर लिया जाय तो समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।अतः ऐसी महिमामयी गंगा जी की उत्पत्ति एवं प्रवाह-स्थलों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।
पौराणिक आख्यानों से ज्ञात होता है कि इस भूमण्डल पर सात द्वीप हैं।उनमे सबके बीच मे जम्बू द्वीप है।इस द्वीप के बीचो-बीच सुमेरु पर्वत है।इसी के दक्षिण मे भारत वर्ष है।
प्राचीन काल मे भगवान विष्णु के पैर के अँगूठे के नाखून के आघात से ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग मे एक छिद्र हो गया।उसी छिद्र के मध्य से गंगा जी प्रकट हुईं।वे वहाँ से चलकर स्वर्ग के शिखर पर रुकीं।विष्णु जी के पैर के आघात से निकलने के कारण ही इन्हें विष्णुपदी कहा जाता है।वे स्वर्ग-शिखर पर जहाँ रुकी थीं ; उस स्थान को विष्णुपद कहा जाता है।
गंगा जी विष्णुपद से चलकर चन्द्र मण्डल को आप्लावित करती हुई ब्रह्मलोक ( सुभेरु के उच्च शिखर ) मे पहुँचीं।वहाँ वे चार भागों मे विभक्त हो गयीं ; जो सीता ; चक्षु ; अलकनन्दा एवं भद्रा के नाम से प्रसिद्ध हैं।सीता नामक गंगा ब्रह्मलोक से उतर कर केसर पर्वत के शिखर पर होती हुई गन्धमादन पर्वत के शिखर पर पहुँचीं।वहाँ से भद्राश्व वर्ष के बीच से प्रवाहित होती हुई पूर्व दिशा मे क्षारोदधि ( खारे पानी के समुद्र ) मे मिल गयीं।
चक्षु नामक दूसरी गंगा माल्यवान् पर्वत से निकल कर केतुमाल वर्ष होती हुई पश्चिम दिशा मे समुद्र मे मिल गयीं। अलकनन्दा नामक तीसरी गंगा ब्रह्मलोक के दक्षिण से होकर हेमकूट पर्वत पर पहुँचीं।वहाँ से बहती हुई भारत वर्ष मे आ गयीं।बाद मे वे दक्षिण समुद्र मे मिल गयीं।भद्रा नामक चौथी धारा श्रृंगवान पर्वत से निकल कर उत्तर कुरु प्रदेश होती हुई समुद्र मे मिल गयीं।
Friday, 22 April 2016
गंगावतरण -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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