Wednesday, 6 April 2016

ईश्वर -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी का आलेख

           संस्कृत भाषा मे ईश् धातु मे वरच् प्रत्यय लगाने से ईश्वर शब्द बनता है।यहाँ इसका अर्थ है - ऐश्वर्ययुक्त ; समर्थ ; प्रभु ; शासक ; परमात्मा ; परमेश्वर ; शिव ; विष्णु आदि।
          सनातन परम्परा मे ईश्वर या परमेश्वर की सर्वोच्च महत्ता है।उन्हें जगत् की सृष्टि ; स्थिति एवं लय का हेतु माना जाता है।वे समस्त प्राणियों की प्रकृति होते हु भी प्रकृति के विकार ; गुण एवं उनके कार्य आदि दोषों से नितान्त परे हैं।पृथ्वी और आकाश के मध्य जो कुछ भी स्थित है ; उन सबको उन्होंने व्याप्त कर रखा है।किन्तु स्वयं समस्त आवरणों से परे हैं।वे समस्त कल्याण-गुणों के स्वरूप एवं सम्पूर्ण विश्व के कल्याण-साधक हैं।औन्होंने अपनी मायाशक्ति से समस्त प्राणियों को व्याप्त कर रखा है।
            वे ईश्वर तेज ; बल ; ऐश्वर्य ; महाविज्ञान ; शक्ति आदि गुणों की एकमात्र राशि हैं।वे प्रकृति ; अविद्या आदि सम्पूर्ण क्लेशों से पूर्णतः रहित हैं।वे ही समष्टि-व्यष्टि रूप एवं व्यक्ताव्यक्त स्वरूप हैं।वे ही सर्वेश्वर ; सर्वसाक्षी ; सर्वज्ञ एवं सर्व शक्तिमान हैं।इसीलिए उन्हें परमेश्वर कहा जाता है।शास्त्रों मे इस शब्द का प्रयोग केवल शिव जी एवं विष्णु जी के लिए ही होता है।

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