प्राचीन काल मे अत्रि नामक एक ब्रह्मवेत्ता तपस्वी थे।उनकी पत्नी का नाम अनसूया था ; जो पातिव्रत धर्म के लिए विश्व-विख्यात थीं।एक बार महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्र-कामना से घोर तप किया।उनके शतवर्षीय दुष्कर तप के प्रभाव से एक अग्निमयी ज्वाला प्रकट हुई।उसने सम्पूर्ण त्रैलोक्य को व्याप्त कर लिया।इससे ऋषि ; मुनि ; देवता आदि चिन्तित हो गये।
इसके बाद ब्रह्मा ; विष्णु और महेश तीनो लोग मुनिवर के आश्रम मे प्रकट हुए और कहा कि हम तीनो संसार के ईश्वर हैं।हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे ; जो त्रिलोकी मे विख्यात एवं माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे।कालान्तर मे ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा ; विष्णु के अंश से दत्त ( दत्तात्रेय ) और रुद्र के अंश से दुर्वासा का अवतार हुआ।
दुर्वासा जी रुद्रावतार थे।इसलिए उनका स्वरूप अत्यन्त रौद्र और स्वभाव बहुत क्रोधी था।दुर्वासा जी की अनेक लीलायें प्रसिद्ध हैं।उन्होंने एक बार राजा अम्बरीष की परीक्षा ली थी।सुदर्शन चक्र ने जब अम्बरीष का पीछा किया तब शिव जी ने उन्हें दुर्वासा जी की प्रार्थना करने को कहा था।दुर्वासा के प्रसन्न होने पर भी सुदर्शन चक्र शान्त हुआ था।इन्होंने राम और कृष्ण की भी परीक्षा ली थी।
यद्यपि दुर्वासा जी बहुत क्रोधी थे ; किन्तु उनके हृदय मे दया और करुणा का विशाल सागर भी लहराता रहता था।एक बार वे नदी मे स्नान कर रहे थे ; तभी उनका अधोवस्त्र प्रवाह मे बह गया।कुछ दूरी पर द्रौपदी स्नान कर रही थी।उसे जब ज्ञात हुआ तब उसने अपने आँचल का एक टुकड़ा फाड़कर उन्हें प्रदान किया।मुनिवर ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि यह टुकड़ा बहुत अधिक बढ़कर तुम्हारी लाज बचायेगा।बाद मे इसी वरदान के कारण कौरव-सभा मे द्रौपदी की लाज बची थी।
इस प्रकार दुर्वासा जी केवल क्रोधी ही नहीं ; बल्कि दया की प्रतिमूर्ति भी थे।वे अपने दयालु रूप से सज्जनों की रक्षा करते थे और रौद्र रूप से दुष्टों का संहार करते थे।भगवान शिव भी तो इसी प्रकार कल्याण और संहार दोनो क्रियायें करते हैं।अतः उनके अवतार को उसी प्रकार का होना उचित ही है।
Saturday, 30 April 2016
शिव जी का दुर्वासावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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