Friday, 15 April 2016

सत्ययुग -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           सनातन परम्परा मे एक निर्धारित समय की अवधि को युग कहा जाता है।युगों की संख्या चार है ; जो सत्ययुग ; त्रेता ; द्वापर और कलियुग के नाम से प्रसिद्ध हैं।इनमे सत्ययुग की गणना सर्वप्रथम की गयी है।इस युग मे मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा सर्वविध सिद्धि प्राप्तकर कृतकृत्य हो जाता है।इसलिए इसे कृतयुग भी कहा जाता है।
            सत्ययुग की उत्पत्ति कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी को प्रथम प्रहर मे श्रवण नक्षत्र एवं वृद्ध योग मे हुई थी।इसका परिमाण 4000 दिव्य वर्ष बताया गया है।इसका सन्ध्याकाल 400 दिव्यवर्ष तथा सन्ध्यांश भी 400 दिव्यवर्ष होता है।इस प्रकार सत्ययुग की कुल अवधि 4800 दिव्य वर्ष होती है। कालगणना के नियमानुसार मनुष्यों 360 वर्षों के बराबर एक दिव्य वर्ष होता है।अतः 4800 दिव्य वर्षों को 360 से गुणा करने पर सत्ययुग का परिमाण 1728000 मानवीय वर्ष होते हैं।
            पुराणों मे धर्म के चार चरण माने जाते हैं; जो सत्य ; दया ; तप और दान के रूप मे प्रसिद्ध हैं।सत्ययुग मे धर्म अपने चारो चरण से विद्यमान रहता है।उस समय सभी लोग धर्म के इन चारो चरणों का शत प्रतिशत पालन करते थे।उनमे अधर्म का लेशमात्र भी स्पर्श नही था।वे सब परम सन्तोषी ; दयालु ; जितेन्द्रिय ; मनस्वी ; समदर्शी एवं आत्माराम होते थे।सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को वे एक समान भाव से सहन करते हैं।इसलिए उनके जीवन मे कभी भी द्वन्द्व की स्थिति नही आती थी।
             यद्यपि सत्ययुग मे चारों ओर सुख ; शान्ति ; सुव्यवस्था आदि का वातावरण था।फिर भी पिछले सत्ययुग मे कुछ ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हुईं ; जिनके कारण भगवान विष्णु को चार बार अवतार लेना पड़ा था।ये चारों अवतार मत्स्य ; कूर्म ; वाराह एवं नृसिंह के नाम से प्रसिद्ध हैं।इतना तो निश्चित है कि भगवान का अवतार सदैव धर्म की हानि एवं दुष्टों की वृद्धि होने पर पुनः धर्म की स्थापना ; दुष्टों का संहार एवं सज्जनो की रक्षा करने के लिए होता है।
           यह तो निश्चित है कि अन्य तीनो युगों की अपेक्षा सत्ययुग अनेक दृष्टियों से अधिक अच्छा है।इस समय मानव अधिक सुखी ; दीर्घायु ; स्वस्थ ; प्रसन्नचित्त ; परोपकारी ; कृतज्ञ ; धर्मरत ; स्वाध्यायी आदि होते हैं।

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