अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड नायक भगवान विष्णु जी अजर और अमर हैं।फिर भी एक विशिष्ट कारणवश उनका मस्तक कटकर गिर गया था।इस सम्बन्ध मे देवीभागवत महापुराण मे एक अत्यन्त रोचक एवं शिक्षाप्रद आख्यान उपलब्ध है।उसका सार संक्षेप यहाँ प्रस्तुत है।
एक बार भगवान विष्णु जी अपने समीप बैठी हुई लक्ष्मी जी को देखकर हँसने लगे।लक्ष्मी जी सोचने लगीं कि इनके हँसने का कारण क्या हो सकता है ? कहीं इन्होंने किसी सुन्दरी स्त्री को मेरी सौत तो नहीं बना लिया है? यह सोचते हुए अत्यन्त क्रोधातुर हो गयीं।उन्होंने क्रोधावेश मे आकर धीरे से कहा कि तुम्हारा शिर कटकर गिर जाय।इस प्रकार लक्ष्मी जी ने बिना सोचे समझे अपने ही सुख को नष्ट करने वाला शाप दे डाला।
कुछ दिनो बाद विष्णु जी एक दीर्घकालीन युद्ध से वापस होते समय बहुत थके हुए थे।अतः मार्ग मे ही एक शुभ स्थान पर प्रत्यञ्चा चढ़ धनुष पर गर्दन रखकर विश्राम करने लगे।शीघ्र ही उन्हें गहरी नीद आ गयी।एक दिन ब्रह्मा शिव आदि देवगण उनका दर्शन करने वैकुण्ठ लोक गये।वहाँ नहीं मिले तो ज्ञान-दृष्टि से देखकर सब लोग वहाँ पहुँचे ; जहाँ विष्णु जी सो रहे थे।सब लोग उन्हे जगाने का उपाय सोचने लगे।
ब्रह्मा जी ने तुरन्त दीमक को उत्पन्न किया और उनसे धनुष के अग्रभाग को खा जाने को कहा।दीमकों ने वैसा ही किया।इससे धनुष की डोरी मुक्त हो गयी।उसी समय एक भयानक आवाज हुई और विष्णु जी का मस्तक कटकर कहीं चला गया।इसे देखकर देवगण विलाप करने लगे।उस समय ब्रह्मा जी ने समझाया कि सब लोग महामाया विद्यारूपी देवी का स्तवन कीजिए।समस्त देवों सहित वेदों ने स्तवन किया।इससे प्रसन्न होकर देवी जी प्रकट हुईं और विष्णु जी के पुनर्जीवित होने का उपाय बतलाया।
माता भगवती के निर्देशानुसार विश्वकर्मा जी ने विष्णु जी के धड़ पर घोड़े का शिर जोड़ दिया।इस प्रकार विष्णु जी हयग्रीव ( हय = घोड़ा ; ग्रीव = गर्दन ) बन गये। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यह सम्पूर्ण घटना बिना सोचे समझे बोल जाने का ही परिणाम है।अतः प्रत्येक कार्य को सोच समझ कर ही करना और कहना चाहिए।
Wednesday, 13 April 2016
विष्णु जी का मस्तक कटना
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