सनातन परम्परा मे भगवान् का बहुत महत्त्व है।इस शब्द का अर्थ जानने के लिए इसकी व्युत्पत्ति देखनी आवश्यक है। संस्कृत मे मतुप् प्रत्यय का प्रयोग "वाला" अर्थ मे होता है।इस प्रत्यय मे मतुप् के स्थान पर मत् बचता है।जैसे बुद्धि+मतुप्=बुद्धिमत्।इसका अर्थ है बुद्धि वाला।परन्तु यही मतुप् जब अकारान्त शब्दों मे जुड़ता है ; तब मत् के स्थान पर वत् जुड़ता है।जैसे बल+मतुप्=बलवत्। इसी प्रकार "भग"शब्द मे मतुप् प्रत्यय करने से भग + मतुप् = भगवत् बनता है।इसी शब्द के प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप भगवान् होता है।भगवत् या भगवान् का अर्थ हुआ --भग वाला।यहाँ अब यह प्रश्न उठता है कि भग क्या है ? इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है ---
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।
--- अर्थात् सम्पूर्ण ऐश्वर्य ; धर्म ; यश ; श्री ; ज्ञान और वैराग्य -- इन छः का नाम "भग" है।ये छः भग जिसमे अव्यवहित तथा अविच्छिन्न रूप से सदैव विद्यमान रहें ; उन्हें भगवान् कहा जाता है।इस शब्द का प्रयोग संज्ञा और विशेषण दोनो रूपों मे होता है।जब यह संज्ञा के रूप मे प्रयुक्त होता है ; तब इसका अर्थ परब्रह्मस्वरूप वासुदेव विष्णु अथवा शिव होता है।
इस शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप मे अधिक होता है।यद्यपि यह सत्य है कि पूज्य पदार्थों को सूचित करने वाले लक्षण से युक्त इस शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से परमात्मा के लिए होता है ।परन्तु गौण रूप मे अन्य के लिए भी हो सकता है।इस दृष्टि से जो समस्त प्राणियों की उत्पत्ति ; स्थिति ; विनाश ; आवागमन ; विद्या ; अविद्या आदि को विधिवत् जानते हैं ; वे भगवान् कहलाने योग्य हैं।इसी प्रकार जो त्याग करने योग्य त्रिविध गुण और उनके क्लेश से रहित हों तथा ज्ञान ; शक्ति ; बल ; ऐश्वर्य ; वीर्य ; तेज आदि सद्गुणों से युक्त हों ; वे भगवान् कहलाने योग्य हैं।इसीलिए राम ; कृष्ण ; ब्रह्मा आदि विभिन्न देवताओं के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।
Thursday, 7 April 2016
भगवान् --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी का आलेख
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