सामान्य रूप से सूर्यदेव पृथ्वी पर स्थित जल को ग्रहण कर उसे मेघों मे स्थापित करने के बाद पृथ्वी पर वर्षा करते हैं।परन्तु कभी-कभी वे आकाशगंगा के जल को भी लेकर उसे मेघों मे स्थापित किये बिना ही पृथ्वी पर बरसा देते हैं।यह जल अत्यन्त शुद्ध एवं पवित्र होता है।यह जल अन्नादि के लिए तो अमृत तुल्य होता ही है साथ ही प्राणियों के समस्त पापों का नाश करने वाला और वैकुण्ठ की प्राप्ति कराने वाला होता है।
सूर्यदेव जब कृत्तिका आदि विषम नक्षत्रों पर स्थित होते हैं ; उस समय वर्षा से प्राप्त होने वाला जल ; दिग्गजों द्वारा फेंका हुआ आकाशगंगा का जल होता है।यह बहुत पवित्र एवं पापनाशक होता है।इसी प्रकार भरणी आदि सम नक्षत्रों मे स्थित सूर्य के समय मे आकाश से गिरने वाला जल आकाशगंगा का ही जल होता है।ये दोनों जल बहुत पवित्र एवं पाप-नाशक होते हैं।इनके स्पर्श मात्र से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।वह मनुष्य सुख पूर्वक जीवन यापन कर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।उसे नरक लोक की यातनाओं का सामना नहीं करना पड़ता है।अतः वर्षा के जल का स्पर्श अवश्य कर लेना चाहिए।संभव है कि वह आकाशगंगा का ही जल हो।इससे बिना प्रयास ही असीम पुण्य की प्राप्ति हो जाती है।
Monday, 24 October 2016
आकाशगंगा का जल -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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