प्रदोष ; महा शिवरात्रि ; मास शिवरात्रि आदि अवसरों पर भगवान शिव जी के पूजन की आवश्यकता पड़ती है।शिव पूजन के लिए अनेक उत्तम पद्धतियाँ उपलब्ध हैं ; परन्तु उनका प्रयोग केवल सुयोग्य विद्वानों द्वारा ही सम्भव है। विद्वान तो हर स्थान पर मिल जायेंगे।किन्तु उपर्युक्त अवसरों एक ही समय पर अनेक लोगों को पृथक्-पृथक् स्थानों पर पूजन करना पड़ता है।ऐसी स्थिति मे एक या दो पण्डित अधिक लोगों की पूजा नहीं करा पाते हैं।उस स्थिति मे प्रत्येक व्रती को शिव-पूजन हेतु किसी सरल विधि की आवश्यकता होती है।इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए यह लेख प्रस्तुत है।यदि आपके पास सुविधा हो तो वैदिक पौराणिक मन्त्रों द्वारा पूजन करें।सुविधा न होने पर केवल नाम-मन्त्र से ही पूजन करना चाहिए।यहाँ उसी विधि का संकेत किया जा रहा है।
शिव-पूजन करने के लिए किसी शिवालय मे शुभासन पर बैठकर स्वयं और पूजन सामग्री को पवित्र करके गणेश ; गौरी ; नन्दी ; स्वामि कार्तिकेय ; वीरभद्र ; कीर्तिमुख ; कुबेर और सर्प का संक्षिप्त पूजन कर लें।तब शिव पूजन करें।
ध्यान --- हाथ मे अक्षत ; पुष्प आदि लेकर शिव जी का ध्यान करें ---
ऊँ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलांगं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।
इतना पढ़कर अक्षत पुष्प शिव जी पर चढ़ा दें।यदि इस मन्त्र को पढ़ने मे कठिनाई हो तो इस प्रकार कहें ---
ऊँ नमः शिवाय ध्यानं समर्पयामि।
आवाहन --- एक फूल लेकर कहें ----
ऊँ नमः शिवाय आवाहनं समर्पयामि।
उस फूल को शिव जी पर चढ़ा दें।
आसन --- फूल या बिल्वपत्र लेकर --
ऊँ नमः शिवाय आसनं समर्पयामि।कहकर शिव जी पर चढ़ा दें।
पाद्यादि --- चार बार शिव जी पर जल छोड़ें ---
ऊँ नमः शिवाय पाद्यं अर्घ्यं आचमनीयं स्नानीयं च समर्पयामि।
दुग्धस्नान --- शिव जी पर थोड़ा सा गोदुग्ध डालें ---
ऊँ नमः शिवाय पयः स्नानं समर्पयामि।
फिर जल डालें --
ऊँ नमः शिवाय शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
दधिस्नान --- ऊँ नमः शिवाय दधि स्नानं समर्पयामि।
जल डालें -- ऊँ नमः शिवाय शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
घृत स्नान --- ऊँ नमः शिवाय घृत स्नानं समर्पयामि।
जल डालें -- ऊँ नमः शिवाय शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
मधु स्नान --- ऊँ नमः शिवाय मधुस्नानं समर्पयामि।
जल डालें ---- ऊँ नमः शिवाय शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
शर्करा ( चीनी ) स्नान --- ऊँ नमः शिवाय शर्करा स्नानं समर्पयामि।
जल --- ऊँ नमः शिवाय शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
पञ्चामृत स्नान ---- ऊँ नमः शिवाय पञ्चामृत स्नानं समर्पयामि।
जल ---- ऊँ नमः शिवाय शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक स्नान ---- केशर हल्दी मिश्रित जल से स्नान करायें --
ऊँ नमः शिवाय गन्धोदक स्नानं समर्पयामि।
शुद्ध जल ---- ऊँ नमः शिवाय शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
आचमन ---- आचमन हेतु जल छोड़ दें।
वस्त्रोपवस्त्र या कलावा --- ऊँ नमः शिवाय वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि।तदर्थे रक्षासूत्रं समर्मयामि।
आचमन ---- आचमन हेतु जल छोड़ दें।
यज्ञोपवीत ---- ऊँ नमः शिवाय यज्ञोपवीतं समर्पयामि।
आचमन --- आचमन हेतु जल छोड़ें।
भस्म ---- ऊँ नमः शिवाय भस्मं विलेपयामि।
चन्दन ---- ऊँ नमः शिवाय चन्दनं विलेपयामि।
अक्षत ---- ऊँ नमः शिवाय अक्षतान् समर्पयामि।
फूल --- ऊँ नमः शिवाय पुष्पाणि समर्पयामि।
पुष्पमाला हो तो ---- ऊँ नमः शिवाय पुष्पमालिकां समर्पयामि।
मन्दार पुष्प --- ऊँ नमः शिवाय मन्दार पुष्पाणि समर्पयामि।
बिल्वपत्र (ग्यारह हो तो अच्छा होता है )---- ऊँ नमः शिवाय बिल्वपत्राणि समर्पयामि।
सुगन्धित द्रव्य इत्र आदि ---- ऊँ नमः शिवाय सुगन्धि द्रव्यं समर्पयामि।
दूर्वा ( ग्यारह दूब के अंकुर ) ----- ऊँ नमः शिवाय दूर्वांकुरान् समर्पयामि।
शमी पत्र ---- ऊँ नमः शिवाय शमी पत्राणि समर्पयामि।
भाँग --- ऊँ नमः शिवाय विजयां समर्पयामि।
अबीर बुक्का --- ऊँ नमः शिवाय नाना परिमल द्रव्याणि समर्पयामि।
तुलसी मञ्जरी --- ऊँ नमः शिवाय तुलसी मञ्जरीं समर्पयामि।
धूप ( धूप बत्ती या अगरबत्ती जलाकर ) ---- ऊँ नमः शिवाय धूपमाघ्रापयामि।
दीप ---- ऊँ नमः शिवाय दीपं दर्शयामि।
दीपक दिखाने के बाद अपना हाथ धुल लें।
नैवेद्य ( मीठा आदि ) ----
ऊँ नमः शिवाय नैवेद्यं निवेदयामि।
आचमन --- तीन बार जल छोड़कर आचमनीयं जलं समर्पयामि।
फल --- ऊँ नमः शिवाय ऋतु फलं समर्पयामि।
आचमन हेतु जल छोड़ें ----
आचमनीयं जलं समर्पयामि।
धत्तूर फल ---- ऊँ नमः शिवाय धत्तूर फलं समर्पयामि।
पान सुपाड़ी ---- ऊँ नमः शिवाय नैवेद्यान्ते मुख शुद्ध्यर्थं ताम्बूल पूगीफल च समर्पयामि।
दक्षिणा --- ऊँ नमः शिवाय दक्षिणां समर्पयामि।
प्रदक्षिणा --- प्रदक्षिणा कर लें।शिव जी की परिक्रमा आधी की जाती है।
विशेषार्घ्य --- दोने मे जल हल्दी आदि लेकर विशेषार्घ्य दें ---
ऊँ नमः शिवाय विशेषार्घ्यं समर्पयामि।
प्रार्थना --- हाथ मे पुष्प लेकर प्रार्थना करें ----
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मयादेव परिपूर्णं तदस्तु मे।।
यदक्षरपदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद् भवेत्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर।।
करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवण नयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो।।
आरती ----
कर्पूरगौरं करुणावतारं
संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा वसन्तं हृदयार्विन्दे
भवं भवानी सहितं नमामि।।
पुष्पाञ्जलि --- हाथ मे फूल लेकर
ऊँ नमः शिवाय पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।
प्रणाम ---- ऊँ नमः शिवाय प्रणामं करोमि।
समर्पण -- सम्पूर्ण पूजन भगवान शिव जी को समर्पित कर दें।
बाद मे आसन के नीचे जल छोड़कर अनामिका अंगुली से उस जल को अपने माथे मे लगा लें ---- ऊँ विष्णवे नमः तीन बार कहें।
प्रसाद ---- इसके बाद भगवान का प्रसाद स्वयं ग्रहण करें।
नोट ---- उपर्युक्त " ऊँ नमः शिवाय " के स्थान पर " ऊँ भूर्भुवः स्वः श्री भवानीशंकर-देवताभ्यो नमः " का भी प्रयोग किया जा सकता है।
Tuesday, 30 August 2016
शिव पूजन विधि --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
व्रतों मे मन्त्र जप --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
शास्त्रों मे मानव-हित के लिए जितने साधन बताये गये हैं ; उनमें व्रतों का महत्त्व पूर्ण स्थान है।प्रत्येक व्रत मे उस व्रत से सम्बन्धित देवता के पूजन के बाद उनके मन्त्र का जप भी करना चाहिए।परन्तु अनेक बार ऐसी स्थिति आती है कि जपनीय मन्त्र की उपलब्धि नहीं हो पाती है।ऐसी स्थिति मे शास्त्र का स्पष्ट निर्देश है कि समस्त व्रतों मे देवाधिदेव महादेव भगवान शिव जी का पूजन करके विधि पूर्वक पञ्चाक्षरी विद्या का जप करना चाहिए ---
सर्वव्रतेषु सम्पूज्य देवदेवमुमापतिम्।
जपेत् पञ्चाक्षरीं विद्यां विधिनैव द्विजोत्तमाः।।
पञ्चाक्षरी विद्या का अभिप्राय " नमः शिवाय " है।यदि इस मन्त्र के पूर्व " ऊँ " लगा दिया जाय तो अधिक शुभ होता है।इस प्रकार प्रत्येक व्रत के बाद " ऊँ नमः शिवाय " मन्त्र का जप यथेष्ट संख्या मे किया जाय तो वह व्रत पूर्ण हो जाता है।इससे लाभ की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है।उसे अन्य किसी भी मन्त्र की आवश्यकता नहीं रहती है।केवल इस मन्त्र के जप से ही अभीष्ट सिद्धि हो जाती है।जप की दृष्टि से भी यह मन्त्र सरल है।इसके जप के लिए किसी विशेष ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती है।केवल श्रद्धा और भक्ति की भावना ही अपेक्षित है।
यह महामन्त्र शिव जी का वाचक है और शिव जी इसके वाच्य हैं।जो व्यक्ति इस मन्त्र का जप करता है ; उसकी समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।उसे किसी भी वस्तु का अभाव नहीं रहता है।उसे कभी भी दुःख नहीं होता है।उसके सम्पूर्ण पाप समूल नष्ट हो जाते हैं।अन्त मे उसे दुर्लभ शिव धाम की प्राप्ति हो जाती है।अतः प्रत्येक आस्तिक व्यक्ति को चाहिए कि वह विभिन्न प्रकार के व्रतों मे अथवा अन्य अवसरों पर इस महामन्त्र का जप करके लाभ उठाये।
Monday, 29 August 2016
पश्चात्ताप --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
मानव जीवन मे अनेक कार्य करने पड़ते हैं।उन कार्यों को करते समय भूलवश कोई न कोई पाप हो ही जाता है।उन पापों के कारण दण्ड स्वरूप कष्ट होना स्वाभाविक है।अतः प्राचीन मनीषियों ने उन पापों के प्रायश्चित्त के लिए अनेक उपायों का विधान किया है।उन उपायों मे व्रत ; अनुष्ठान ; पूजा ; पाठ आदि का निर्देश दिया गया है।उन्हीं मे पश्चात्ताप को भी एक श्रेष्ठ उपाय बताया गया है।अतः जो व्यक्ति व्रतादि प्रायश्चित्तों को करने मे असमर्थ हों वे पश्चत्ताप के द्वारा ही पाप शमन कर सकते हैं।महर्षि वेदव्यास के मतानुसार पश्चात्ताप ही पापशमन का सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है।यह समस्त पापों का शोधक माना गया है।इससे पाप की शुद्धि सुनिश्चित रूप से हो जाती है।जो व्यक्ति किसी पाप के बाद पश्चात्ताप करता है ; वही वास्तविक प्रायश्चित्त करता है।पश्चात्ताप के बिना किसी पाप का प्रायश्चित्त सम्भव ही नहीं है।इसीलिए सत्पुरुषों ने समस्त पापों की शुद्धि के लिए जिस प्रकार प्रायश्चित्त का उपदेश किया है ; उसी प्रकार पश्चात्ताप को भी महत्त्व प्रदान किया है।जो कार्य प्रायश्चित्त से होता है ; वही कार्य पश्चात्ताप से भी सम्पन्न हो जाता है ----
पश्चात्तापः पापकृतां पापानां निष्कृतिः परा।
सर्वेषां वर्णितं सद्भिः सर्वपापविशोधनम्।।
पश्चात्तापेनैव शुद्धिः प्रायश्चित्तं करोति सः।
यथोपदिष्टं सद्भिर्हि सर्वपापविशोधनम्।।
मंगलकामना --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
सनातन धर्म के जितने भी आधार ग्रन्थ हैं ; उन सब में मंगलकामनाओं की पर्याप्त बहुलता दृष्टिगोचर होती है।उन मंगल कामनाओं की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उनमे किसी व्यक्ति विशेष की नहीं ; बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण की कामना की गयी है।इसके लिए निम्नलिखित श्लोक सर्वाधिक उल्लेखनीय है ;जिसमे यह भाव व्यक्त किया गया है कि सभी सुखी हों ; सभी स्वस्थ एवं निरोग रहें ; सबका कल्याण हो ; कोई भी दुःख का भागी न हो ----
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्।।
आप स्वयं देख सकते हैं कि इस श्लोक मे जैसी उदात्त एवं सर्व मंगल की भावना व्यक्त की गयी है ; वैसी भावना अन्यत्र दुर्लभ है।यहाँ प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की गयी है।यही तो इस देश एवं इस संस्कृति की विशेषता है।अतः हमे भी इसी भावना से ओतप्रोत होकर जीवन यापन करना चाहिए।
Sunday, 28 August 2016
प्रार्थना मे भावना का महत्त्व -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
प्रार्थना परब्रह्म परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने का श्रेष्ठतम साधन है।जब हम हृदय से भगवान का गुणगान करते हुए प्रार्थना करते हैं ; तब उनसे तादात्म्य अवश्य स्थापित होता है।प्रार्थना मे अपार शक्ति है।इसके द्वारा सब कुछ सम्भव है।इसके द्वारा मनुष्य की समस्त कामनायें पूर्ण हो सकती हैं।परन्तु प्रार्थना मे भावना का महत्त्व बहुत अधिक है।जब हम शुभ कामना से प्रार्थना करते हैं ; तब हमारी कामना की पूर्ति के साथ-साथ हमारे पुराने दूषित संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं।इतना ही नहीं ; बल्कि भविष्य मे दूषित संस्कारों की उत्पत्ति भी अवरुद्ध हो जाती है।लेकिन वही प्रार्थना जब दूषित भावना ; असत् स्वार्थ-पूर्ति अथवा दूसरों का अहित करने की भावना से युक्त होती है ; तब उसका परिणाम अच्छा नहीं होता है।उदाहरण के लिए हमे शत्रु बाधा से निवृत्ति पाने के लिए प्रार्थना करनी हो तो केवल आत्मरक्षा का निवेदन किया जाय। उसमे शत्रु के अहित की बात ही न की जाय।
यदि सच्चे हृदय से शुभकामनाओं से युक्त प्रार्थना की जायेगी ; तब सुन्दर एवं मनोवाँछित फल मिलना सुनिश्चित है।अतः सदैव शुभकामना युक्त प्रार्थना करनी चाहिए।उसमे अशुभ का लेशमात्र स्पर्श नहीं होना चाहिए।ऐसी प्रार्थना से चमत्कारी लाभ होगा ; इसमे कोई सन्देह नहीं है।
सद् बुद्धि की प्राप्ति --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
मानव-जीवन मे असंख्य वस्तुओं एवं पदार्थों का महत्त्व है ; उनमे सद् बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि है।सद् बुद्धि के द्वारा ही व्यक्ति सन्मार्ग मे प्रवृत्त होता है।सद् बुद्धि ही उसे सत्कर्म करने की प्रेरणा देती है।सत्कर्म करने वाला व्यक्ति सदैव सुखी ; सम्पन्न और कल्याणयुक्त रहता है।इसके द्वारा ही वैयक्तिक ; सामूहिक ; लौकिक ; पारलौकिक आदि विविधविध कल्याण की प्राप्ति होती है।अतः सद्बुद्धि -प्राप्ति का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
हमारे धर्मशास्त्रों मे सद्बुद्धि प्राप्ति के लिए अनेक उपाय बताये गये हैं।उन उपायों मे गायत्री-जप का महत्त्वपूर्ण स्थान है।इसमे परब्रह्म परमात्मा के प्रतिनिधि स्वरूप भगवान सूर्यदेव से सद्बुद्धि एवं सत्प्रेरणा की प्राप्ति के लिए ही प्रार्थना की गयी है।इसीलिए प्राचीन मनीषियों ने गायत्री मन्त्र को सद्बुद्धि प्राप्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन माना है।अतः हम लोगों को भी उस महामन्त्र के द्वारा सद्बुद्धि प्राप्त करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
Saturday, 27 August 2016
माङ्गलिक शब्द --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
किसी भी कार्य को आरम्भ करने के पूर्व भगवन्नाम स्मरण करना सनातन परम्परा की प्रमुख विशेषता है।इसीलिए प्रायः सभी लोग कार्यारम्भ के पूर्व अपने इष्टदेव ; कुलदेव अथवा स्थान-देवता का नाम अवश्य लेते हैं।कम से कम " जय भगवान की " तो कहते ही हैं।अधिकाँश लोग प्रथम पूज्य गणेश जी कि नामोच्चारण करते हैं।इसीलिए " श्री गणेश " शब्द को कार्यारम्भ का पर्याय ही मान लिया गया है।प्रायः सुनने को मिलता है कि आज से इस कार्य का श्री गणेश होने जा रहा है।
इसी प्रकार कवि अथवा लेखक भी अपनी रचनाओं के आरम्भ मे श्रीः ; श्री गणेशाय नमः ; ऊँ ; अथ आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं।ये सभी शब्द अत्यन्त माङ्गलिक हैं।इनका प्रयोग करने से कार्य मंगलमय ढंग से सम्पन्न हो जाता है।प्राचीन ग्रन्थों के आरम्भ मे ऊँ तथा अथ शब्द का प्रयोग बहुत अधिक मिलता है।इसका कारण यही है कि ब्रह्मा के मुख से सर्वप्रथम यही दोनों शब्द निकले थे ; इसलिए ये दोनों शब्द अत्यन्त माङ्गलिक हैं ---
ओङ्कारश्चाथशब्श्च द्वावेतौ ब्रह्मणा पुरा।
कण्ठं भित्वा विनिर्यातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ।।
अतः प्रत्येक व्यक्ति को कार्यारम्भ करते समय अथवा ग्रन्थ रचना करते समय उपर्युक्त माङ्गलिक शब्दों मे से किसी एक अथवा अनेक का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
प्रार्थना -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
अखिल ब्रह्माण्ड-नायक परब्रह्म परमात्मा का गुणगान करते हुए उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने के प्रयास को प्रार्थना कहा जाता है।यह तभी सफल होती है ; जब प्रार्थना करने वाला व्यक्ति समस्त सांसारिक वस्तुओं को भूलकर उस परमात्म सत्ता मे निमग्न हो जाता है।प्रार्थना मे अभूतपूर्व शक्ति होती है।जीवन मे अनेक बार ऐसी घटनायें सुनने को मिलती हैं ; जब भारी से भारी विपत्ति भी प्रार्थना के बल पर टल जाती है।आवश्यकता है केवल श्रद्धा ; विश्वास और तन्मयता की।तदि ये तीनों तथ्य विद्यमान हों तो प्रार्थना के असफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
पुराणों मे असंख्य ऐसे आख्यान उपलब्ध हैं ; जिन्हें देखने से प्रार्थना की अपरिमित शक्ति का स्वयमेव बोध हो जाता है।कौरवों की सभा मे द्रौपदी की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण दौड़े चले आये और ऐसा वस्त्रावतार ग्रहण किया कि महाशक्तिशाली दुःशासन हार मान कर बैठ गया।मनुष्यों की बात छोड़िये ग्राह-ग्रसित गजराज की प्रार्थना का ही प्रभाव है कि श्रीहरि दौड़े चले आये और उसकी रक्षा की।इस प्रकार असंख्य उदाहरण दिये जा सकते हैं ; जब प्रार्थना ने वह कर दिखाया ; जो नितान्त असम्भव एवं दुष्कर था।अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस अमोघ उपाय का आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए।
Friday, 26 August 2016
ग्रहपीड़ा निवारण -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
आजकल ज्योतिष का प्रचार बहुत बढ़ गया है।अधिकाँश लोग जन्मपत्रिका बनवाते हैं और उसके अनुरूप उपाय करके निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हो रहे हैं।अनेक ऐसे लोग मिलते हैं जो किसी न किसी ग्रह की पीड़ा से व्यथित हैं।परन्तु उस ग्रहपीड़ा का सुगम उपाय न जानने के कारण इधर उधर भटकते रहते हैं।शास्त्रों मे ग्रहपीड़ा निवारण के लिए असंख्य उपाय बताये गये हैं।परन्तु अधिकांश उपाय श्रमसाध्य एवं व्ययसाध्य हैं।इसलिए निर्धन व्यक्ति उन उपायों का आश्रय नहीं ले पाता और कष्ट भोगता रहता है।
इसलिए यहाँ पर मै प्रत्येक ग्रहजन्य पीड़ा के निवारण का सरलतम उपाय की ओर संकेत कर रहा हूँ ; जो नितान्त विश्वसनीय एवं लाभप्रद है।यदि किसी को ग्रह तथा नक्षत्र के कारण कष्ट हो तो वह किसी शिवालय मे पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति के साथ " ऊँ नमः शिवाय " मन्त्र का दस हजार जप करे और उसके बाद उसी मन्त्र से आठ हजार आहुति प्रदान करे तो तत्काल लाभ होगा।वह ग्रह एवं नक्षत्रजन्य पीड़ा से पूर्णतः मुक्त हो जायेगा।हवन सामग्री सन्तुलित अनुपात मे होनी चाहिए।
दीर्घायु कारक हवन सामग्री -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
किसी भी मन्त्र-जप के बाद हवन आवश्यक है।सामान्य रूप से जपे गये मन्त्र की संख्या का दसवाँ भाग तुल्य हवन का विधान है।यदि एक लाख पचीस हजार जप किया जाय तो बारह हजार पाँच सौ आहुति देनी चाहिए।किन्तु इतनी संख्या मे आहुति संभव न होने पर इतनी ही संख्या का जप अधिक कर दिया जाता है और जप का सौवाँ हिस्सा हवन कर दिया जाता है।हवन के लिए सामग्री का भी बहुत महत्त्व है।सामान्य रूप से तिल का आधा चावल और चावल का आधा जौ मिलाया जाता है।कुल सामग्री के अनुपात मे घी ; दशाँग और गुड़ मिलाया जाता है।
शास्त्रों मे उपर्युक्त सामग्री के साथ अनेक ऐसी वस्तुओं का उल्लेख हुआ है ; जो विशेष प्रयोजनों मे प्रयुक्त होती हैं।जैसे दीर्घायु प्राप्ति के लिए दूर्वांकुर ; वाणी ; गिलोय ( गुरिच ) और घुटिका विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।यदि " ऊँ नमः शिवाय " मन्त्र से इन सामग्रियों की दस हजार आहुतियाँ दे तो निश्चित रूप से दीर्घायु की प्राप्ति होती है।अन्य मन्त्रों के अनुष्ठान के बाद की हवन मे भी ये वस्तुयें प्रयुक्त हो सकती हैं।ये दीर्घायु प्रदान करने वाला अपना गुण अवश्य दिखायेंगी।
ऊपर जो वाणी ; गिलोय आदि वस्तुयें बतायी गयी हैं।उन्हें अन्य सामग्रियों के साथ मिलाया न जाय।बल्कि प्रत्येक वस्तु के न्यूनतम 108 टुकड़े घी मे डुबोकर प्रत्येक मन्त्र पर एक टुकड़े की आहुति डाली जाय तो अधिक लाभ होता है।टुकड़ों की संख्या अधिकाधिक रखने का प्रयास करें तो अधिक लाभ होगा।
पूजन सामग्री का फल -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
किसी भी देवी-देवता का पूजन करते समय जो सामग्रियाँ अर्पित की जाती हैं ; उन्हें उपचार कहा जाता है।जब इष्टदेव को गन्ध ; पुष्प ; धूप ; दीप और नैवेद्य निवेदित किया जाता है ; तब उसे पञ्चोपचार पूजन कहा जाता है।दशोपचार पूजन मे पाद्य ; अर्घ्य ; आचमन ; स्नान ; वस्त्र ; गन्ध ; पुष्प ; धूप ; दीप और नैवेद्य निवेदित किया जाता है।षोडशोपचार पूजन मे पाद्य ; अर्घ्य ; आचमन ; स्नान ; वस्त्र ; आभूषण ; गन्ध ; पुष्प ; धूप ; दीप ; नैवेद्य ; आचमन ; ताम्बूल ; स्तवपाठ ; तर्पण और नमस्कार निवेदित किया जाता है।परन्तु जब आसानी से उपलब्ध होने वाली वस्तुओं से पूजन किया जाता है ; तब उसे यथालब्धोपचार पूजन कहा जाता है।
इन वस्तुओं को अर्पित करने से भिन्न-भिन्न फलों की प्राप्ति होती है।यहाँ पर शिवलिंग पूजन हेतु समर्पित की जाने वाली प्रमुख वस्तुओं से प्राप्त होने वाले फलों का विवेचन प्रस्तुत है ---
अभिषेक --- भगवान शिव जी का अभिषेक करने से मनुष्य को आत्मशुद्धि की प्राप्ति होती है।
गन्ध --- शिव जी को गन्ध समर्पित करने से परम पुण्य की प्राप्ति होती है।
धूप --- शिव जी को धूप निवेदित करने से मनुष्य को धन की प्राप्ति होती है।
दीप--- शिवाराधन मे प्रज्ज्वलित दीप दिखाने से ज्ञान का उदय होता है।
नैवेद्य --- भगवान को नैवेद्य निवेदित करने से दीर्घायु एवं तृप्ति की प्राप्ति होती है।
ताम्बूल --- शिव जी को नैवेद्य के बाद ताम्बूल अर्पित करने से भक्त को विविध प्रकार के भोगों की प्राप्ति होती है।
जप एवं नमस्कार --- पूजनोपरान्त जप एवं नमस्कार करने से मनुष्य को भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
दिवसानुसार पूजन -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
शास्त्रों मे प्रत्येक दिन के अधिपतियों का निर्धारण करने के बाद उनके द्वारा प्राप्य वस्तुओं का भी वर्णन किया गया है।शिवपुराण ; विद्येश्वर संहिता ; के चतुर्दश अध्याय मे इस विषय पर व्यापक चर्चा की गयी है।उक्त ग्रन्थ के अनुसार इनका विवरण इस प्रकार है ---
रविवार --- इस दिन के अधिष्ठातृ देवता सूर्यदेव हैं।इन्हें आरोग्य का दाता माना गया है।अतः आरोग्य प्राप्ति के लिए रविवार को सूर्य पूजन अवश्य करना चाहिए।इस दिन अन्य देवताओं तथा ब्राह्मणों के लिए विशिष्ट वस्तुयें भी समर्पित करनी चाहिए।इससे विशिष्ट फल की प्राप्ति एवं पापों की शान्ति होती है।
सोमवार ---- इस दिन के अधिष्ठातृ चन्द्रदेव हैं।इन्हें सम्पत्ति-दाता देवता माना गया है।अतः सम्पत्ति प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को चाहिए कि वे सोमवार को लक्ष्मी आदि की पूजा करें तथा सपत्नीक ब्राह्मणों को घृत मे तले हुए अन्न ( पूड़ी आदि ) का भोजन करायें।
मंगलवार --- मंगलवार के अधिष्ठातृ मंगल हैं।ये व्याधियों का निवारण करने वाले देवता माने गये हैं।अतः रोगों की शान्ति के लिए मंगलवार को काली आदि की पूजा करनी चाहिए।साथ ही ब्राह्मणों को उड़द ; मूँग एवं अरहर की दाल आदि से युक्त अन्न का भोजन कराना चाहिए।इससे शीघ्र लाभ होता है।
बुधवार --- बुधवार के देवता बुध देव हैं।ये पुष्टि प्रदान करने वाले देवता माने जाते हैं।इस दिन दधि - युक्त अन्न से भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए।इससे पुत्र ; मित्र ; कलत्र आदि की पुष्टि होती है।
गुरुवार --- गुरुवार के अधिष्ठातृ बृहस्पति जी हैं।ये आयु-वृद्धि करने वाले देवता माने जाते हैं।अतः दीर्घायु प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को चाहिए कि वे देवताओं की पुष्टि के लिए वस्त्र ; यज्ञोपवीत तथा घृत मिश्रित खीर से यजन-पूजन करें।
शुक्रवार --- शुक्रवार के अधिष्ठातृ शुक्र जी हैं।इन्हें भोग-प्रदाता देवता माना जाता है।अतः भोग चाहने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे तथा ब्राह्मणों की तृप्ति के लिए षड् रस युक्त अन्न प्रदान करे।इसी प्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिए सुन्दर वस्त्र आदि का विधान करे।
शनिवार --- शनिवार के अधिष्ठातृ देवता शनि देव हैं।ये अपमृत्यु का निवारण करने वाले देवता हैं।इस दिन रुद्र आदि देवताओं का पूजन करना चाहिए।साथ ही तिल के हवन और दान से देवताओं को सन्तुष्ट करके ब्राह्मणों को तिल-मिश्रित अन्न का भोजन कराना चाहिए।