भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे भगवान श्रीकृष्णावतार की गणना बीसवें स्थान पर की गयी है --
एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी।
रामकृष्णाविति भुवो भगवानहरद्भरम्।।
मथुरा नरेश उग्रसेन के छोटे भाई देवक की पुत्री देवकी का विवाह वसुदेव के साथ हुआ।उसे पहुँचाने के लिए कंस स्वयं रथ-संचालन करने लगा।उसी समय आकाशवाणी हुई -- अरे मूर्ख ! तू जिसको रथ पर बैठाकर भेजने जा रहा है ; उसी के अष्टम गर्भ की सन्तान तुझे मार डालेगी।इतना सुनते ही कंस की क्रूरता साकार हो गयी।वह अपनी चचेरी बहन देवकी की हत्या करने को तैयार हो गया।बाद मे बसुदेव की प्रार्थना पर छोड़ दिया परन्तु अष्टम सन्तान उत्पन्न होने तक के लिए दोनों को कारागार मे डाल दिया।कंस ने क्रमशः छः पुत्रों को मार डाला।सप्तम गर्भ संकर्षित हो गया।
अब अष्टम गर्भ द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का समय आ गया।भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अर्धरात्रि के समय रोहिणी नक्षत्र रहते हुए भगवान का अवतार हुआ।वसुदेव और देवकी ने देखा कि उनके सामने एक अद्भुत बालक उपस्थित है।उसके हाथों मे शंख चक्र गदा पद्म और वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित है।कण्ठ मे कौस्तुभ मणि और श्यामल शरीर पर पीताम्बर सुशोभित रहा है।विविधविध रत्नाभूषणों से सुसज्जित अंग-प्रत्यंग से अद्भुत छटा छिटक रही है।इस मनोहर स्वरूप को देखकर दोनों आनन्द विभोर हो गये।फिर क्या था ; दोनो भगवान की स्तुति मे संलग्न हो गये।
कुछ देर बाद भगवान ने शिशु रूप धारण कर लिया।फिर उनकी प्रेरणा से द्वारपाल सो गये ; द्वार खुल गये ; वसुदेव की बेड़ियाँ खुल गयीं।वसुदेव श्रीकृष्ण को लेकर चल पड़े।वर्षा होने लगी।शेष जी अपने सहस्र फणों से भगवान के ऊपर छाया किये हुए उनके पीछे-पीछे चल पड़े।यमुना मे भयानक बाढ़ थी किन्तु तट पर भगवान के पहुँचते ही पानी घट गया।वसुदेव जी गोकुल मे नन्द बाबा के घर पहुँच गये।उन्होंने कृष्ण को यशोदा की शय्या पर सुलाया और उनकी नवजात कन्या को लेकर बन्दीगृह मे लौट आये।उन्होंने कन्या को देवकी की शय्या पर सुला दिया।देखते ही देखते वसुदेव के पैरों मे बेड़ियाँ लग गयीं।द्वार बन्द हो गये ; द्वारपाल जग गये और कन्या रुदन करने लगी।कंस को सूचना मिली।उसने कन्या को शिला पर पटक कर मारना चाहा परन्तु वह कंस के हाथ से छिटक कर सायुध अष्टभुजी होकर आकाश मे चली गयी।बाद मे उस देवी ने कहा -- अरे मूर्ख ! मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा ? तुझे मारने वाला किसी स्थान पर उत्पन्न हो चुका है।इसे सुनकर कंस ने अपने सेवकों को सभी नवजात शिशुओं को मार डालने का आदेश दे दिया।इससे असंख्य बच्चे मार डाले गये।
इधर गोकुल मे श्री कृष्ण जन्मोत्सव मनाया जाने लगा।घर-घर बधाइयाँ बजने लगीं।तभी कंस के आदेशानुसार श्रीकृष्ण को मारने के लिए पूतना आ गयी।वह सुन्दर स्त्री का वेष बनाकर नन्द बाबा के घर मे घुस गयी और श्रीकृष्ण को स्तनपान कराने लगी।भगवान ने उसके स्तनों को इतनी जोर से दबाया कि उसका प्राणान्त हो गया। बाद मे उसका वास्तविक रूप प्रकट हुआ।एक बार तृणावर्त नामक दैत्य बवण्डर का रूप धारण गोकुल आया और श्रीकृष्ण को आकाश मे उड़ा ले गया।तब श्रीकृष्ण ने उसका गला दबाकर उसका अन्त कर दिया।
धीरे-धीरे श्रीकृष्ण की बाल लीलायें आरम्भ हो गयीं।उन्होंने बछड़ों को खोलकर दूध पिलाना ; दूध-दही चुराना ; फेंकना आदि आरम्भ कर दिया।तभी कुछ लोगों ने बताया कि कन्हैया ने मिट्टी खा लिया है।यशोदा ने उनका मुह खोलवाया तो उसके अन्दर उन्हें सम्पूर्ण चराचर जगत दिखाई पड़ा।यशोदा गबरा गयीं।अतः श्री कृष्ण ने अपनी माया सँकेल ली।
एक दिन दधि-मन्थन मे अवरोध डालने के अपराध मे यशोदा ने श्रीकृष्ण को रस्सी से बाँधना चाहा परन्तु रस्सी छोटी हो गयी।यशोदा रस्सियाँ जोड़ती गयीं फिर भी छोटी होती गयी।काफी देर तक लीला करने के बाद भगवान स्वयं ही बँध गये।यशोदा ने रस्सी का एक शिरा ऊखल मे बाँध दिया।कुछ देर बाद भगवान ऊखल को खींचते हुए चल पड़े।ऊखल यमलार्जुन ( दो अर्जुन वृक्षों के बीच ) मे फँस गया।भगवान ने बल लगाकर खींचा ; जिससे दोनो विशाल वृक्ष धराशायी हो गये।इस प्रकार कुबेर के अभिषप्त पुत्रों का उद्धार हो गया।
एक बार ग्वाल बालों सहित श्रीकृष्ण क्रीडा कर रहे थे।उसी समय कंस-प्रेषित अघासुर आया और अजगर बनकर सबको निगल गया।श्रीकृष्म ने अपने शरीर को इतना अधिक बढ़ा दिया कि दैत्य का गला रुँध गया और उसकी मृत्यु हो गयी।
गोकुल के पास यमुना मे कालिय नामक एक भयानक विषधर रहता था।उसने सम्पूर्ण जल को विषैला बना दिया ; जिसे पीकर अनेक जीव मर गये।अतः उसे मारने के लिए श्री कृष्ण यमुना मे कूद गये।कालिय नाग ने उनके मर्मस्थलों मे डँसने के बाद नागपाश मे बाँध लिया।इधर ग्वाल बाल रोने चिल्लाने लगे।सूचना पाकर नन्द यशोदा सहित सम्पूर्ण व्रजवासी आ गये।सभी हाहाकार करने लगे।तभी श्रीकृष्ण ने अपने शरीर को इतना मोटा कर लिया कि नागपाश टूट गया।दोनों मे भयानक युद्ध छिड़ गया।श्री कृष्ण उसके सौ फणों पर सवार होकर नृत्य करने लगे।उनके पदताल से घायल होकर कालिय नाग बेहोश हो गया।कुछ देर बाद उसे होश आया।वह भगवान की प्रार्थना करने लगा।फिर उनकी आज्ञानुसार वह सपरिवार रमणक द्वीप को चला गया।
इसके बाद भी श्रीकृष्ण ने अनेक अद्भुत लीलायें कीं।उन्होंने ने ब्रजवासियों को दावानल से बचाया तथा प्रलम्बासुर का उद्धार किया।तत्पश्चात् चीर हरण ; गोवर्धन धारण ; रासलीला ; शंखचूड और अरिष्टासुर का उद्धार किया।बाद मे कंस के आमन्त्रण पर बलराम सहित श्रीकृष्ण जी मथुरा गये।वहाँ चाणूर आदि पहलवानों एवं कंस का वध करके उग्रसेन को पुनः राजा बनाया।बाद मे जरासन्ध के आक्रमणों से परेशान होकर द्वारकापुरी चले गये।वहीं दोनों भाइयों का विवाहादि संस्कार हुए।बाद मे स्यमन्तक मणि ; रुक्मिणी हरण आदि अनेक रोचक लीलायें कीं।
श्रीकृष्ण पाण्डवों के परम हितैषी थे।उन्होंने उनका हिस्सा दिलाने और युद्ध को टालने का भरपूर प्रयास किया किन्तु दुर्योधन की हठधर्मिता आड़े आती रही।इसी के परिणाम स्वरूप महाभारत का महा विनाशकारी युद्ध हुआ।युद्ध क्षेत्र मे गीता का दिव्य उपदेश देकर श्री कृष्ण ने ही मोहग्रस्त अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा दी।बाद मे उन्हीं की सहायता से पाण्डवों को विजय की प्राप्ति हुई।
श्री कृष्ण पूर्ण पुरुष लीलावतार थे।वे बहुत दयालु ; भक्तवत्सल ; न्यायप्रिय एवं सन्तसेवी थे।उन्होंने अपनी दिव्य लीलाओं द्वारा अनेक असुरों का उद्धार कर देश मे सुख ; शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना की।
Tuesday, 23 August 2016
श्रीकृष्णावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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Very good
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