कलिमल-विनाशिनी ; पतितपावनी गंगा जी की महत्ता किसी से छिपी नहीं है।इनकी असीम महत्ता के कारण ही सभी देवी-देवता ; ऋषि-मुनि इन्हें शीश नवाते हैं और मनुष्यों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देते हैं।देवर्षि नारद भी गंगा के अनन्य भक्त थे।वे प्रायः गंगा-तट पर जाया करते थे।वहाँ पहुँचकर वे गंगा जी को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करते और बिना स्नान किये ही लौट जाते थे।यह क्रम दीर्घकाल तक चलता रहा।एक दिन जब नारद जी आये तब गंगा जी प्रकट हो गयीं।उन्होंने कुशल-क्षेम के पश्चात् नारद जी से पूछा -- नारद जी ! अन्य सभी मुनिगण जब आते हैं तब वे मुझमे स्नान भी करते हैं।परन्तु अकेले आप स्नान क्यों नहीं करते हैं ?
नारद जी बहुत सरल हृदय एवं धैर्यशाली हैं।उन्होंने बड़ी शालीनता के साथ उत्तर दिया -- मातेश्वरी ! आपके दर्शन-मात्र से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है।फिर आपमे स्नान करने पर इससे बढ़कर और कौन सा फल प्राप्त होगा ; यह मै नहीं जानता हूँ।इसे सुनकर गंगा जी सन्तुष्ट हो गयीं।कहने का अभिप्राय यह है कि जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति ही है।उसकी प्राप्ति आपके दर्शन से ही हो जाती है।अन्यत्र भी कहा गया है -- गङ्गे तव दर्शनात् मुक्तिः।
यहाँ नारद जी भगवती गङ्गा जी के असीम माहात्म्य को प्रदर्शित करने के लिए ही केवल प्रणाम करते थे।किन्तु उन्हें गंगास्नान से कोई विरोध नहीं था।अतः पाठक गण इसी भाव को ध्यान मे रखते हुए श्रद्धा-भक्ति की अभिव्यक्ति करें।
Monday, 22 August 2016
नारद की गंगा-भक्ति --- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment