Tuesday, 23 August 2016

हयग्रीव अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे भगवान हयग्रीव अवतार का महत्त्वपूर्ण स्थान है।इन्होंने सृष्टि के आरम्भ मे भगवान ब्रह्मा जी की विशेष सहायता की थी।
           सृष्टि के आरम्भ मे ब्रह्मा जी सृष्टि-संरचना मे संलग्न थे।उनके पार्श्व मे वेद भगवान भी आसीन थे।उसी समय मधु और कैटभ नामक दो महादैत्य वहाँ पहुँच गये।उन्होंने वेदों का हरण कर लिया और उन्हें लेकर रसातल मे चले गये।ब्रह्मा जी बहुत दुःखी हुए और असहाय होकर विलाप करने लगे।अब उनके पास श्रीहरिस्मरण के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था।अतः वे करुणार्द्र भाव से भगवान की प्रार्थना करने लगे।
         भगवान श्री हरि अत्यन्त दयालु एवं भक्तवत्सल हैं।वे ब्रह्मा जी स्तुति सुनकर हयग्रीव रूप मे प्रकट हो गये।उस समय उनका स्वरूप अत्यन्त विशाल एवं विचित्र था।उनकी गर्दन और मुख घोड़े के समान था।यहाँ हय = घोड़ा और ग्रीव = गर्दन है।अतः घोड़े के समान गर्दन वाले होने के कारण उन्हें हयग्रीव कहा जाता है।उन्होंने उसी रूप मे महा समुद्र मे प्रवेश किया और रसातल मे पहुँच गये।वहाँ उन्होंने सामगान का सस्वर गान आरम्भ किया।उनकी वाणी इतनी मधुर थी एवं हृदयाकर्षक थी कि वे दोनों दैत्य वेदों को फेंक कर उनकी ओर चल पड़े।उसी समय अवसर पाकर भगवान ने वेदों को ले लिया और लाकर ब्रह्मा जी को समर्पित कर दिया।इसके बाद  अपने वास्तविक स्वरूप को धारण कर क्षीरसागर मे शयन करने लगे।इस प्रकार एक विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए ही भगवान ने हयग्रीव रूप धारण किया था।

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