भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे भगवान नृसिंह अवतार की गणना चतुर्दश स्थान पर की गयी है।इस अवतार मे उन्होंने नरसिंह रूप धारण कर महा बलशाली दैत्यराज हिरण्यकशिपु के वक्षस्थल को अपने नाखूनों से इस प्रकार फाड़ डाला ; जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है ---
चतुर्दश नारसिंहं बिभ्रद्दैत्येन्द्रमूर्जितम्।
ददार करजैर्वक्षस्येरकां कटकृद्यथा।।
भगवान विष्णु ने जब वराह अवतार धारण कर हिरण्याक्ष का वध कर दिया ; तब उसका भाई हिरण्यकशिपु बहुत दुःखी और क्रुद्ध हुआ।उसने भ्रातृहन्ता विष्णु जी से बदला लेने की प्रतिज्ञा की।उसने सोचा कि विष्णु की जड़ तो द्विजातियों के धर्म-कर्म ही हैं।अतः सर्व- प्रथम इस जड़ को ही काटना उचित है।इसके लिए उसने अपने असुरों को आदेश दिया कि तुम लोग गाय ; ब्राह्मण ; वेद ; धर्म ; कर्म आदि को नष्ट कर दो।उसका आदेश पाते ही असुरों ने भयानक विनाश किया ; जिससे सम्पूर्ण धरा मे त्राहि-त्राहि मच गयी।
इसके बाद हिरण्यकशिपु मन्दराचल पर्वत पर तप करने चला गया।उसकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उससे वर माँगने को कहा।हिरण्यकशिपु ने कहा -- यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो ऐसा वर दीजिए कि आपके द्वारा किसी भी प्राणी के द्वारा मेरी मृत्यु न हो।ब्रह्मा जी उसकी तपस्या से प्रसन्न थे ही।अतः उन्होंने उसे मनोवाँछित वर प्रदान कर दिया।इस प्रकार का वर प्राप्त करने के बाद उसने सम्पूर्ण पृथ्वी पर घोर अत्याचार आरम्भ कर दिया।इससे चिन्तित होकर देवगण भगवान विष्णु की शरण मे गये।भगवान ने उनका अभीष्ट पूर्ण करने का आश्वासन दिया।
हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे।उनमे से प्रह्लाद जी सबसे छोटे थे।वे बहुत सौम्य ; सन्तसेवी ; सत्यप्रतिज्ञ ; जितेन्द्रिय एवं भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे।वे बाल्यावस्था मे खेलकूद को छोड़कर भगवद्भक्ति मे ही लगे रहते थे।एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा -- बेटा ! तुम्हें कौन सी बात सर्वाधिक अच्छी लगती है ? इसके उत्तर मे प्रह्लाद ने श्रीहरि-भक्ति की प्रशंसा की।इसे सुनकर असुरराज ने कहा -- संभवतः गुरुगृह मे कोई विष्णुभक्त वेष बदल कर निवास कर रहा है और वही इस बालक को भ्रमित कर रहा है।अतः इसकी देखरेख विधिवत् की जानी चाहिए ; जिससे कोई इसे बहका कर विष्णुभक्त न बना सके।
कुछ दिनो बाद हिरण्यकशिपु ने पुनः प्रह्लाद से उनकी शिक्षा के विषय मे पूछा।इस बार भी प्रह्लाद ने भगवद्भक्ति की ही प्रशंसा की।अब तो हिरण्यकशिपु क्रोध से आग बबूला हो गया।उसने प्रह्लाद को अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया।वह इतना क्रुद्ध हुआ कि प्रह्लाद जी का वध करने का उपाय करने लगा।उसने प्रह्लाद को हाथियों से कुचलवाया ; साँपों से डँसवाया ; पर्वत-चोटी से गिरवाया ; विष पिलवाया ; अग्नि और समुद्र मे डलवाया फिर भी उनका बाल तक बाँका नहीं हुआ।
हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को जितना अधिक सताता था ; उनकी भक्ति उतनी ही अधिक प्रबल हो रही थी।उन्होंने अपने सहपाठी असर-बालकों को भी भगवद्भक्ति की ओर अग्रसर कर दिया।इसे जानकर हिरण्यकशिपु ने उन्हें बहुत धमकाया डराया ; किन्तु वे विचलित नहीं हुए।तब असुरराज ने पूछा -- तू जिसे जगत् का स्वामी कहता है ; वह है कहाँ ? इस पर प्रह्लाद ने कहा -- वह सर्वत्र व्याप्त है।असुरराज ने पूछा -- यदि वह सर्वत्र है ; तो इस खम्भे मे क्यों नही दिखाई देता है ? प्रह्लाद जी ने कहा -- वे जगदीश्वर इस खम्भे मे भी विराजमान हैं।इतना सुनते ही हिरण्यकशिपु तलवार लिए सिंहासन से कूद पड़ा और खम्भे पर एक घूँसा मारा।उसी समय उस खम्भे को विदीर्ण कर भगवान नृसिंह जी प्रकट हो गये।उनका शरीर न तो पूरा पूरा सिंह का था और न पूरा मनुष्य का ही।बल्कि ऊपरी भाग सिंह का और निचला भाग मनुष्य का था।उनका स्वरूप अत्यन्त विकराल था।तप्त सुवर्ण सदृश पीली पीली आँखें ; गर्दन मे लहराते हुए बाल ; विकराल दाढ़ें ; छुरे के समान तेज धार वाली लपलपाती हुई जीभ ; ऊपर उठे हुए कान ; फूली हुई नासिका ; पर्वत-गुफा के समान खुला मुख तथा फटे हुए जबड़े ; उनकी भयंकरता को और अधिक बढ़ा रहे थे।
नृसिंह भगवान को देखते ही हिरण्यकशिपु उन पर टूट पड़ा।ब्रह्मा जी के वरदान के कारण उसे मृत्यु का भय तो था ही नहीं।परन्तु नृसिंह जी ने उसे पकड़ लिया।कुछ देर तक संघर्ष चलता रहा।अन्त मे भगवान ने सभागृह के द्वार पर ले जाकर उसे अपनी जंघा पर गिरा लिया।फिर अपने तीक्ष्ण नाखूनों से उसका कलेजा फाड़कर उसे भूमि पर पटक दिया।इससे उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।इतने मे आकाश से भगवान के ऊपर पुष्पवृष्टि होने लगी।सभी देवी-देवता भगवान नृसिंह का दर्शन करने आ गये।सबने उनकी स्तुति की परन्तु उनका क्रोध शान्त नहीं हो रहा था।अन्त मे देवताओं के निर्देशानुसार प्रह्लाद जी उनके समक्ष साष्टांग लेट गये।प्रभुवर को दया आ गयी।उन्होने प्रह्लाद को स्नेह पूर्वक शुभाशीष प्रदान किया और बाद मे अन्तर्धान हो गये।इस प्रकार उस असुर के मारे जाने से सम्पूर्ण विश्व मे आनन्द की लहर फैल गयी।
Saturday, 6 August 2016
नृसिंह अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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