माता ही बच्चे की प्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ गुरु है।वही बच्चे को हँसना ; बोलना ; उठना ; बैठना ; खाना ; लिखना पढ़ना आदि सिखाती है।पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों का ज्ञान भी माता के द्वारा ही प्राप्त होता है।विद्यालय मे बच्चा थोड़े ही समय तक रहता है ; शेष अधिकाधिक समय तक माता के सम्पर्क मे रहता है।इसलिए उसके सीखने की प्रक्रिया मे सर्वाधिक प्रभाव माता का ही होता है।बच्चा तो कच्ची एवं गीली मिट्टी का लूँढ़ा है।उसे राम ; कृष्ण सदृश महान बनाने का काम माता ही करती है।जन्म देने का विधाता ब्रह्मा है किन्तु बच्चे के व्यक्तित्व एवं चरित्र की विधाता माता ही होती है।
बच्चे के विकास एवं प्रगति मे माता की भूमिका सर्वोपरि होती है।वही बच्चे के शरीर मे शक्ति एवं मन मे साहस उत्पन्न करती है।वही उसे सत्कर्म की ओर अग्रसर कर महान और महानतम बनाती है।संसार मे जितने भी महापुरुष हुए हैं ; उनके चरित्र-निर्माण मे माता का योगदान सर्वोपरि रहा है।आधुनिक युग मे भी मोहन दास करम चन्द गांधी को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा उनकी माता पुतली बाई ने ही दी थी।इतना ही नहीं ; बल्कि उस बैरिस्टर गांधी को महात्मा गांधी बनने की प्रेरणा अपनी माता से ही प्राप्त हुई थी।छत्रपति शिवा जी को वीर ; साहसी एवं राष्ट्रप्रेमी बनाने का महनीय कार्य उनकी माता जीजा बाई ने ही किया था।माता अपने बच्चे को जिस प्रकार का चाहे ; उसी प्रकार का बना सकती है।बच्चे के सम्पूर्ण विकास मे माता का योगदान किसी से छिपा नहीं है।
उपर्युक्त विशेषताओं को देखते हुए प्रायः सभी सद्ग्रन्थों मे माता की असीम महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।अतः हम सबका परम कर्तव्य है कि माता-पिता रूपी प्रत्यक्ष देवताओं की सेवा-सुश्रूषा मे किसी प्रकार की कमी न आने दें।उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए उन्हें इतना प्रसन्न और सन्तुष्ट रखें कि उन्हें कभी भी दुःख न हो।
Tuesday, 16 August 2016
नहि मातृसमो गुरुः -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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