Tuesday, 2 August 2016

कूर्मावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे कूर्मावतार की गणना एकादश स्थान पर की गयी है --
   सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम्।
   दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः।।
          एक बार महर्षि दुर्वासा जी पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे।उसी समय एक विद्याधरी दिखाई पड़ी ; जो अपने हाथों मे सन्तानक पुष्पों की दिव्यमाला लिए हुए थी।महर्षि को वह माला बहुत अच्छी लगी।उन्होंने विद्याधरी से वह माला माँगकर अपने गले मे डाल ली।मार्ग मे देवराज इन्द्र मिल गये।महर्षि ने वह माला इन्द्र को दे दी।परन्तु इन्द्र ने उस माला का सम्मान नही किया ; बल्कि उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया।ऐरावत ने उसे सूँड से उतार कर पैरों से कुचल डाला।इसे देखकर दुर्वासा को बहुत क्रोध आया।उन्होंने शाप दे दिया -- हे इन्द्र ! तू तीनों लोकों सहित शीघ्र ही श्रीहीन हो जायेगा।इसे सुनकर इन्द्र भयभीत हो गये।उन्होंने महर्षि से क्षमा-याचना की परन्तु महर्षि ने क्षमा नहीं किया।इसके बाद महर्षि और इन्द्र अपने अपने स्थान को चले गये।
          महर्षि दुर्वासा के इसी शाप के कारण सम्पूर्ण त्रैलोक्य श्रीहीन हो गया।दैत्यों ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया।इन्द्रादि सभी देवगण ब्रह्मा जी की शरण मे गये।ब्रह्मा जी सबको लेकर भगवान विष्णु के पास गये।परन्तु वहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा।अतः ब्रह्मा जी विष्णु जी की स्तुति करने लगे।उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर विष्णु जी प्रकट हो गये।उन्होंने देवताओं के मनोभाव को जानकर कहा -- इस समय असुरों पर काल की कृपा है।अतः तुम लोग उनसे सन्धि कर लो।फिर शीघ्र ही उनका सहयोग लेकर मन्दराचल की मथानी और वासुकि नाग की डोरी बनाकर मेरी सहायता से क्षीर सागर का मन्थन करो।उससे अमृत प्रकट होगा।उसे पीकर तुम अजर-अमर हो जाओगे।इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।
        भगवान के आदेशानुसार देवगण दैत्यराज बलि के पास गये और उसके समक्ष समुद्र-मन्थन का प्रस्ताव रखा।बलि ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।उसके बाद सभी लोग मिलकर मन्दराचल को लाये और नाग वासुकि की डोरी बनाकर समुद्र-मन्थन करने लगे।परन्तु भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होने के कारण मन्दराचल डूबने लगा।उस समय भगवान श्रीहरि ने विशाल कूर्म ( कच्छप ) का रूप धारण कर समुद्र मे प्रवेश किया और अपनी पीठ के सहारे मन्दराचल को ऊपर उठा लिया।
          उस समय भगवान कच्छप का रूप अत्यन्त विशाल था।उन्होंने एक लाख योजन चौड़ी अपनी पीठ पर मन्दराचल को धारण कर रखा था।उनकी पीठ पर जब मन्दराचल घूमता था ; तब ऐसा प्रतीत होता था ; मानो कोई पीठ खुजला रहा हो।उस समय विष्णु जी ने समुद्र-मन्थन को सम्पन्न करने के लिए अपनी माया से देवताओं और असुरों का बल बढ़ा दिया।वे मन्दराचल के नीचे आधार बने ही थे ; ऊपर से भी उसे दबाया।इससे समुद्र-मन्थन सफल हो गया।देवताओं को अमृत की प्राप्ति हुई।इस प्रकार अमृत प्राप्ति मे भगवान कूर्म का योगदान विशेष सराहनीय रहा।
           

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