प्रार्थना परब्रह्म परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने का श्रेष्ठतम साधन है।जब हम हृदय से भगवान का गुणगान करते हुए प्रार्थना करते हैं ; तब उनसे तादात्म्य अवश्य स्थापित होता है।प्रार्थना मे अपार शक्ति है।इसके द्वारा सब कुछ सम्भव है।इसके द्वारा मनुष्य की समस्त कामनायें पूर्ण हो सकती हैं।परन्तु प्रार्थना मे भावना का महत्त्व बहुत अधिक है।जब हम शुभ कामना से प्रार्थना करते हैं ; तब हमारी कामना की पूर्ति के साथ-साथ हमारे पुराने दूषित संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं।इतना ही नहीं ; बल्कि भविष्य मे दूषित संस्कारों की उत्पत्ति भी अवरुद्ध हो जाती है।लेकिन वही प्रार्थना जब दूषित भावना ; असत् स्वार्थ-पूर्ति अथवा दूसरों का अहित करने की भावना से युक्त होती है ; तब उसका परिणाम अच्छा नहीं होता है।उदाहरण के लिए हमे शत्रु बाधा से निवृत्ति पाने के लिए प्रार्थना करनी हो तो केवल आत्मरक्षा का निवेदन किया जाय। उसमे शत्रु के अहित की बात ही न की जाय।
यदि सच्चे हृदय से शुभकामनाओं से युक्त प्रार्थना की जायेगी ; तब सुन्दर एवं मनोवाँछित फल मिलना सुनिश्चित है।अतः सदैव शुभकामना युक्त प्रार्थना करनी चाहिए।उसमे अशुभ का लेशमात्र स्पर्श नहीं होना चाहिए।ऐसी प्रार्थना से चमत्कारी लाभ होगा ; इसमे कोई सन्देह नहीं है।
Sunday, 28 August 2016
प्रार्थना मे भावना का महत्त्व -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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