यह व्रत आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी को किया जाता है।इसे पुत्रवती स्त्रियाँ अपने पुत्रों के जीवन-रक्षण हेतु करती हैं।
कथा ---
------ एक बार महर्षि जीमूतकेतु के पुत्र जीमूतवाहन पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे।उसी समय उन्हें करुण-क्रन्दन सुनाई पड़ा।वे समीप गये तो ज्ञात हुआ कि आज गरुड़ के भोजन हेतु शंखचूड सर्प की बारी है।इसीलिए उसकी माता रो रही है।जीमूतवाहन को दया आ गयी।उन्होंने शंखचूड को रोककर स्वयं गरुड़ का भोजन बनना स्वीकार कर लिया।
जीमूतवाहन नियत स्थान पर लेट गये।गरुड़ आये और उनका मांस नोच कर खाने लगे।जब पर्याप्त मांस खा गये तब उन्हें ज्ञात हुआ कि ये परोपकारवश आत्मवलिदान कर रहे हैं।गरुड़ को बहुत पश्चात्ताप हुआ।उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्तकर वर मागने को कहा।जीमूतवाहन ने कहा कि अब तक मारे गये सभी सर्पों को जीवित कर दें और भविष्य मे इन्हें न मारने का वचन दें।गरुड़ ने स्वीकार कर लिया।उस दिन आश्विन कृष्णा अष्टमी थी। उस दिन सर्प-माता के पुत्र की रक्षा हुई थी।इसीलिए पुत्र-रक्षा हेतु इस व्रत का प्रचलन हुआ।
विधि --
------ व्रती स्नानादि करके निर्जला व्रत करे।रात्रि जागरण के बाद दूसरे दिन पारणा करे।
माहात्म्य ---
----------- इसके प्रभाव से पुत्र सुखी एवं दीर्घायु होते हैं।
Thursday, 24 March 2016
जीवत्पुत्रिका व्रत
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